Thursday 18 October 2012

सत्य न झुठलाएं

जो आदमी सत्य को झुठलाता है, वह घाटे में रहता है। सत्य को झुठलाने का परिणाम अच्छा नहीं होता। जब सत्य का पता चलता है, तब वह झूठ उसे ही सालने लगता है। असत्य की उत्पत्ति के चार कारण बताए गए हैं-क्रोध, लोभ, भय और हास्य। आदमी झूठ नहीं बोलना चाहता। वाणी का असत्य भी नहीं चाहता, किन्तु जब ये चार आवेश प्रबल होते हैं, तब सच्चाई नीचे चली जाती है और असत्य उभरकर सामने आ जाता है। 
एक बार की बात है। विदेश कमाने गए पुत्र ने पिता को एक अंगूठी भेजी। पत्र में उसने लिखा, पिताजी! आपको मैं एक अंगूठी भेज रहा हूं। उसका मूल्य है पांच हजार रूपया। सस्ते में मिल गई थी, इसलिए खरीद ली। अंगूठी पाकर पिता प्रसन्न हो गया। पिता ने अंगूठी पहन ली। अंगूठी बहुत चमकदार और सुन्दर थी। बाजार में मित्र मिले। नई अंगूठी को देखकर पूछा, यह कहां से आई? उसने कहा, लड़के ने भेजी है। पांच हजार रूपए लगे हैं। मित्र बोला, क्या इसे बेचोगे? मैं पचास हजार दूंगा। उसने सोचा, पांच हजार की अंगूठी के पचास हजार मिल रहे हैं। इतने रूपयों में ऎसी दस आ जाएंगी। 

उसने अंगूठी निकालकर दे दी और पचास हजार रूपए ले लिए। पुत्र को पत्र लिखा, तुमने शुभ मुहूर्त में अंगूठी भेजी। उसको मैंने पचास हजार रूपए में बेचकर पैंतालीस हजार रूपए कमा लिए। लौटती डाक से पत्र आया, पिताजी! संकोच और भयवश मैंने सच्चाई नहीं लिखी थी। वह अंगूठी एक लाख की थी। यह सत्य को झुठलाने का परिणाम था।

कर्म, फल और खेल

श्याम नामक बालक रोज स्कूल जाते वक्त जंगल से गुजरते जंगली जानवरों की आवाज से बहुत भयभीत रहता था। उसने अपने पिता से हठ किया कि आप मुझे रोज स्कूल छोड़ने आया करो। पिताजी ने कहा, तुम पूरे रास्ते गोपाल-गोपाल कहते चलते जाओ। श्री कृष्ण तुम्हारी रक्षा स्वयं करेंगे। 
नन्हें से श्याम ने रोज स्कूल जाते वक्त गोपाल का स्मरण करना शुरू किया। कुछ दिनों पश्चात कृष्ण उसके सामने प्रकट हुए और कहा, बोलो, तुम्हें क्या वरदान दूँ? नन्हे से श्याम ने कहा, 'हे गोपाल, आप रोज मुझे स्कूल तक छोड़ने आओ, यही मेरी इच्छा है।' कृष्ण तैयार हो गए। 
मैत्रीपूर्ण स्नेह भरा सफर चलता रहा। श्याम के कुछ मित्रों ने जब यह बात सुनी, तो उन्होंने कहा कि 'हम कैसे माने कि कृष्ण तुम्हें स्कूल छोड़ने आते हैं?' 
दूसरे दिन श्याम ने कृष्ण से प्रार्थना की, तो मित्रों को भी कृष्ण दर्शन हुए। 
जैसे श्याम कि भक्ति का फल उसके मित्रों को बिना मेहनत मिला, इसी प्रकार हमारे जीवन में रोजाना हमें कई ऎसी प्राप्तियां होती हैं, जिसके लिए हमने कोई पुरूषार्थ नहीं किया। माता-पिता, भाई-बहन, मित्र के किसी पुण्य से हमें ये प्राप्तियां होती हैं। 
कभी उन लोगों का उपकार नहीं भूलना चाहिए, जिनके पुरूषार्थ से हम आगे बढे। जन्म से लेकर मृत्यु तक हमने अनेकानेक लोगों से मदद ली। अत: कभी यह मिथ्या अभिमान न करें कि हमने अपने बलबूते सबकुछ हासिल किया है। सृष्टि पर ऎसा कोई नहीं, जिसने किसी के साथ-सहयोग के बिना अपना जीवन निर्वाह किया हो। इसीलिए सदैव सभी के प्रति कृतज्ञता की भावना रखें।

Saturday 29 September 2012

धैर्य से सफलता

एक नवयुवक एक महान तपस्वी संत के पास योगविद्या सीखने गया।
गुरू जी ने कहा, 'मैं तुम्हें एक शर्त पर योग विद्या सिखाऊंगा और वह यह कि तुम मेरे लिए एक छोटी-सी साधना कुटिया का निर्माण करो तब।'
युवक ने शीघ्र ही एक कुटिया का निर्माण कर दिया। गुरू जी ने कुटिया को देखा और कहा कि इसको तोड़कर फिर से नई कुटिया का निर्माण करो। युवक ने फिर से नई कुटिया का निर्माण किया। गुरू जी ने कुटिया को देखा और फिर से कहा कि इसको तोड़कर नई कुटिया का निर्माण करो। यह क्रम चलता ही गया। आखिर में जब ग्यारहवीं बार गुरू ने कुटिया को तोड़कर नई कुटिया का निर्माण करने का आदेश दिया।

युवक भी बिना कोई प्रश्न किए ग्यारहवीं बार भी कुटिया बनाने के लिए तैयारी करने लगा, तब गुरू के मुख से शब्द निकले, 'साधु...साधु... हे नवयुवक तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हुई।
एक साधक को सीखने के लिए जो स्थिति बनानी चाहिए, वह तुम्हारी बन चुकी है और तुम बुद्धि से भी पूर्ण रूप से समर्पित और धैर्यता से सफल हुए हो। अगर तुम्हारे अन्दर जरा-सा भी अपनी बुद्धिमता का अहंकार होता, तो तुम यहां टिक नहीं सकते थे, परन्तु तुमने अपनी अवस्था को बिल्कुल निर्विकल्प रखा, जिसके फलस्वरूप तुम्हारी विजय हुई।'
हमारे जीवन में भी हमें सिखाने के लिए कई प्रकार की समस्याएं, बाधाएं और विपदाएं आती हैं। हमें सदा धैर्य पूर्वक उनका सामना करना चाहिए। याद रखें, जो व्यक्ति जीवन में धैर्य व बौद्धिक स्तर से अहंकारहीनता के गुण को धारण करता है, वह अवश्य ही सफलता को प्राप्त करता है।

Saturday 22 September 2012

प्रेम और भक्ति में हिसाब !

एक पहुंचे हुए सन्यासी का एक शिष्य था, जब भी किसी मंत्र का जाप करने बैठता तो संख्या को खडिया से दीवार पर लिखता जाता। किसी दिन वह लाख तक की संख्या छू लेता किसी दिन हजारों में सीमित हो जाता। उसके गुरु उसका यह कर्म नित्य देखते और मुस्कुरा देते।

एक दिन वे उसे पास के शहर में भिक्षा मांगने ले गये। जब वे थक गये तो लौटते में एक बरगद की छांह बैठे, उसके सामने एक युवा दूधवाली दूध बेच रही थी, जो आता उसे बर्तन में नाप कर देती और गिनकर पैसे रखवाती। वे दोनों ध्यान से उसे देख रहे थे। तभी एक आकर्षक युवक आया और दूधवाली के सामने अपना बर्तन फैला दिया, दूधवाली मुस्कुराई और बिना मापे बहुत सारा दूध उस युवक के बर्तन में डाल दिया, पैसे भी नहीं लिये। गुरु मुस्कुरा दिये, शिष्य हतप्रभ!

उन दोनों के जाने के बाद, वे दोनों भी उठे और अपनी राह चल पडे। चलते चलते शिष्य ने दूधवाली के व्यवहार पर अपनी जिज्ञासा प्रकट की तो गुरु ने उत्तर दिया,

'' प्रेम वत्स, प्रेम! यह प्रेम है, और प्रेम में हिसाब कैसा? उसी प्रकार भक्ति भी प्रेम है, जिससे आप अनन्य प्रेम करते हो, उसके स्मरण में या उसकी पूजा में हिसाब किताब कैसा?'' और गुरु वैसे ही मुस्कुराये व्यंग्य से।

'' समझ गया गुरुवर। मैं समझ गया प्रेम और भक्ति के इस दर्शन को।

तृष्णा त्यागें

गरीबी से तंग आकर एक व्यक्ति जंगल की ओर चला गया। जंगल में उसने एक संन्यासी को देखा। 
संन्यासी के पास जाकर वह बोला, 'महाराज मैं आपकी शरण में आया हूं। गरीब आदमी हूं, मेरा उद्धार करो।' साधु ने कहा, 'क्या चाहिए तुम्हें।' वह बोला, 'मेरी स्थिति देखकर पूछ रहे हैं कि क्या चाहिए मुझे। मैं गरीब हूं। धन दे दें।' संन्यासी ने कहा, 'धन छोड़कर ही तो मैं जंगल में आया हूं। धन तो मेरे पास नहीं है।' गरीब याचक अड़ गया।

उसकी भावना देखकर संन्यासी द्रवित हो गए और बोले, 'मेरे पास तो कुछ है नहीं, दूर सामने जो नदी के पास चमकीला पत्थर है, उसे ले लो। याचक बोला, 'पत्थर तोड़-तोड़ कर ही तो मेरे हाथ में छाले पड़े हैं। कुछ धन दिलाएं जिससे गरीबी दूर हो।' संन्यासी ने कहा, वह सामान्य पत्थर नहीं, पारस पत्थर है। वह प्रसन्न हो गया और पारस पत्थर उठाकर घर की ओर चल पड़ा।

पत्थर लेकर वह चल तो पड़ा, लेकिन रास्ते में मन में उथल-पुथल होने लगी। पहले तो सोचा कि चलो अच्छा हुआ, गरीबी मिट गई, पर तत्काल दूसरा चिन्तन शुरू हो गया। चिंतन गंभीर होता गया। वह वापस संन्यासी के पास जा पहुंचा और बोला, 'यह वापस करने आया हूं।'

संन्यासी ने कहा, 'क्यों?' याचक बोला, 'आपने मुझे पारस पत्थर दिया। इसका अर्थ यह है कि आपके पास इससे भी और कोई मूल्यवान चीज है। वह मुझे दे दीजिए जिसे पाकर आपने इसे त्याग दिया।' जिस व्यक्ति में तृष्णा का नाश हो जाता है, उसके लिए कोई भी वस्तु, कितनी भी कीमती क्यों न हो, कोई मायने नहीं रखती। आकर्षण तृष्णा के कारण ही पैदा होता है।
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Monday 17 September 2012

काम की उपयोगिता


माना जाता है कि जो चीज अनुपयोगी हो, उसे छोड़ देना चाहिए। जो ऎसा नहीं करता, उसे कम से कम समझदार तो नहीं कहा जा सकता। एक आदमी यात्रा पर जा रहा था। रास्ते में उसने एक तालाब देखा जिसका पानी लगभग सूख चुका था। पानी के नाम पर सिर्फ गंदा कीचड़ था। तभी उसने देखा एक आदमी अपने मटके में वह कीचड़युक्त पानी भर रहा है। यात्री ने कहा, 'भाई! इस गंदे पानी का क्या करोगे? यह तो किसी कम का नहीं है।' उसने कहा, 'पीने के लिए ले जा रहा हूं।'

'इस गंदे पानी को पियोगे? गंदा पानी पीने से बीमार हो जाओगे। संक्रमण हो जाएगा और जल्दी ठीक भी नहीं हो पाओगे। इसी रास्ते से कुछ दूर आगे जाओ, एक स्वच्छ पानी का जलाशय मिलेगा, मैं अभी उसका पानी पीकर आ रहा हूं। पानी मीठा भी है।'

उस व्यक्ति ने कहा, 'बताने और सलाह देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। मैं दूर का नहीं, यहीं पास के गांव का रहने वाला हूं और जानता हूं कि कहां क्या है? मैं पानी पिऊंगा तो इसी तालाब का पिऊंगा, क्योंकि यह मेरे पूर्वजों द्वारा निर्मित तालाब है। मेरे पितामह, और पिताजी ने जीवन भर इसी तालाब का पानी पिया था। मैं इस तालाब के अलावा और कहीं का पानी पी ही नहीं सकता।'

वास्तव में देखा जाए तो यह कोई तर्क  नहीं है कि सदियों से ऎसा चला आ रहा है, इसलिए आगे भी ऎसा ही चलता रहेगा। हम जो काम कर रहे हैं, उसकी उपयोगिता और परिणाम पर भी दृष्टिपात करना चाहिए।

Friday 14 September 2012

सीमा में रहना अच्छा


 सड़क किनारे एक बुढिया अपना ढाबा चलाती थी। एक मुसाफिर आया। दिन भर का थका, उसने विश्राम करने की सोची। बुढिया से कहा, 'क्या रात्रि भर यहां आश्रय मिल सकेगा?' बुढिया ने कहा, क्यों नहीं, आराम से यहां रात भर सो सकते हो।'

यात्री ने पास में पड़ी चारपाइयों की ओर संकेत कर कहा, 'इस पर सोने का क्या चार्ज लगेगा?' बुढिया ने कहा, 'चारपाई के सिर्फ आठ आना।' यात्री ने सोचा रात भर की ही तो बात है। बेकार में अठन्नी क्यों खर्च की जाए। आंगन में काफी जगह है, वहीं सो जाऊंगा।

यह सोचकर उसने फिर कहा, 'और अगर चारपाई पर न सोकर आंगन की भूमि पर ही रात काट लूं तो क्या लगेगा?' 'फिर पूरा एक रूपया लगेगा।' बुढिया ने कहा।

बुढिया की बात सुन यात्री को उसके दिमाग पर संदेह हुआ। चारपाई पर सोने का आठ आना और भूमि पर चादर बिछाकर सोने का एक रूपया। यह तो बड़ी विचित्र बात है। उसने बुढिया से पूछा, 'ऎसा क्यों?'

बुढिया ने कहा, 'चारपाई की सीमा है। तीन फुट चौड़ी, छह फुट लंबी जगह ही घेरोगे। बिना चारपाई सोओगे तो पता नहीं कितनी जगह घेर लो।' सीमा में रहना ही ठीक है। असीम की बात समस्या पैदा करती है।

Wednesday 12 September 2012

अज्ञान को जानें


आदमी पढ़ता है, जानता है और कुछ लोग मान भी लेते हैं कि हम बहुत जानते हैं। किंतु कोई भी व्यक्ति इस दुनिया में नहीं मिलेगा, जो यह कह सके कि मैं सब कुछ जानता हूं। जो जानता है, वह कितना जानता है? अगर हम ज्ञात और अज्ञात की तुलना करें तो अज्ञात एक महासमुद्र है और उसमें जो ज्ञात है, वह एक छोटे से टापू से ज्यादा कुछ नहीं, मात्र एक छोटा-सा द्वीप है। अज्ञात बहुत ज्यादा है।

एक अनुश्रुति है, वह बहुत मार्मिक है। कहा जाता है कि यूनान की राजधानी एथेंस में एक दिन देववाणी हुई कि सुकरात सबसे बड़ा ज्ञानी है। लोग जो सुकरात के प्रशंसक थे, वे दौड़कर सुकरात के पास पहंुचे और उन्हें बताया कि आकाशवाणी हुई है कि आप सबसे बड़े ज्ञानी हैं। सुकरात ने कहा, 'यह बिल्कुल गलत बात है। तुम लोगों ने ठीक से नहीं सुना होगा। मैं सबसे बड़ा ज्ञानी नहीं हूं। मैं तो अपने को अज्ञानी मानता हूं।'

 लोग लौटकर गए और देवी से पूछा, 'आपने कहा कि सुकरात सबसे बड़ा ज्ञानी है।' जब यह बात हम लोगों ने उससे कही तो वह कहता है, झूठी बात है। मैं सबसे बड़ा ज्ञानी नहीं हूं, अज्ञानी हूं। आप बताएं सच्चाई क्या है? देवी ने कहा, 'जो अपने अज्ञान को जानता है, वस्तुत: वही सबसे बड़ा ज्ञानी है।' अपने अज्ञान को जानने वाला ही ज्ञानी होता है। जो ज्ञान का अहंकार करता है, वह कभी ज्ञानी नहीं होता। हर  व्यक्ति अनुभव करे, अपने अज्ञान को देखे कि अभी मैं कितना कम जानता हूं। जानना बहुत कुछ है। कुछ लोग पढ़-लिखकर अहंकारी हो जाते हैं, यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है।

Friday 7 September 2012

लालच और वैराग्य


भतृहरि जंगल में बैठे साधना में लीन थे। अचानक उनका ध्यान भंग हुआ। आंख खुली तो देखा — जमीन पर पड़ा एक हीरा सूर्य की रोशनी को भी फीकी कर रहा है। एक समय था जब भतृहरि राजा थे। अनेक हीरे-मोती उनकी हथेलियों से होकर गुजरे थे। लेकिन ऎसा चमकदार हीरा, तो उन्होंने कभी नहीं देखा था।
एक पल के लिए उनके मन में इच्छा जागी — इस हीरे को क्यों न उठा लूं। 

लेकिन चेतना ने, भीतर की आत्मा ने वैसा करने से इनकार कर दिया। लालच की उठी तरंगें भतृहरि के मन को आंदोलित नहीं कर सकीं। तभी उन्होंने देखा— दो घुड़सवार घोड़ा दौड़ाते हुए चले आ रहे हैं। दोनों के हाथ में नंगी तलवार थी। दोनों ही उस पर अपना हक बता रहे थे। जुबानी कोई फैसला न हो पाया, तो दोनों आपस में भिड़ गए। तलवारें चमकीं और एक क्षण बाद भतृहरि ने देखा- जमीन पर लहूलुहान पड़ी दो लाशें। हीरा अपनी जगह पड़ा, अब भी अपनी चमक बिखेर रहा था। 

लेकिन इतने समय में ही बहुत कुछ हो गया। एक के मन में लालच उठा, किंतु वह वैराग्य को पुष्ट कर गया और दो व्यक्ति कुछ क्षण पहले जीवित थे, एक निर्जीव पत्थर के लिए उन्होंने प्राण न्यौछावर कर दिए। धरती पर पड़ा हीरा नहीं जानता कि कोई उससे आकर्षित हो रहा है। यही स्थिति हमारी है। धरती पर ऎसा कुछ भी नहीं, जिसका आकर्षण हममें हो, लेकिन हम हैं जो आकर्षण में उलझे रहते हैं और खोते रहते हैं अपना बहुत कुछ, थोड़ा पाने की लालसा में।

Saturday 1 September 2012

कर्म से पहले अंजाम सोचें


एक बार राजा नगरचर्या में निकले। रास्ते में देखा कि एक फकीर चिल्ला रहा था, 'एक नसीहत एक लाख'। राजा को जिज्ञासा हुई। राजा ने फकीर से पूछा, तो जवाब मिला कि यदि आप धनराशि दे, तो ही आपको नसीहत प्राप्त होगी। राजा ने अपने वजीर से कहकर धनराशि फकीर को दी और नसीहत के रूप में, कागज का एक टुकड़ा प्राप्त किया। कागज पर लिखा था, 'कर्म करने से पहले उसके अंजाम को सोच।' 

राजा ने फकीर से पूछा, 'इसके लिए इतनी धनराशि आपने ली?' फकीर ने मुस्कुराते हुए कहा, 'यही नसीहत एक दिन आपके प्राण बचाएगी।' राजा ने महल में जगह-जगह इस नसीहत को फ्रेम करवाकर लगवा दिया। 

कुछ दिनों के पश्चात राजा बीमार पड़ा, तो वजीर के मन में बड़ा लालच पैदा हुआ और वह राजा का खून करने के लिए उनके खंड में पहुंच गया। ज्यों ही वह राजा पर हमला करने के लिए आगे बढ़ा, उसकी नजर फकीर के दिए हुए संदेश पर पड़ी, जिसमें लिखा था, 'कर्म करने से पहले अंजाम को सोच'... वजीर ने परिणाम के बारे में सोचा और थम गया। उसने तुरंत राजा के पैरों में गिरकर माफी मांगी।

इस कहानी से हमें सबसे बड़ी सीख यह लेनी है कि हम जीवन में बिना अंजाम सोचे अनेक कर्म करते हैं। जिसके फलस्वरूप आज मनुष्य आत्माओं के जीवन में दु:ख, अशांति और दरिद्रता आ गई है। यदि हम अंजाम को सोचें, तो निंदनीय घटनाओं का क्रम घटता जाएगा और धीरे-धीरे सुखमय संसार की स्थापना हो जाएगी और प्रत्येक व्यक्ति अच्छे व श्रेष्ठ कर्म करेगा।

Thursday 23 August 2012

सुख का स्त्रोत

Tuesday, 21 Aug 2012 2:16:24 hrs IST

एक आदमी संन्यासी के पास गया और धन की याचना की। संन्यासी ने कहा, 'मेरे पास कुछ भी नहीं है।' उसने बहुत आग्रह किया तो संन्यासी ने कहा, 'जाओ, सामने नदी के किनारे एक पत्थर पड़ा है, वह ले आओ।' वह गया और पत्थर ले आया। संन्यासी ने कहा, 'यह पारसमणि है, इससे लोहा सोना बन जाता है।' 

वह बहुत प्रसन्न हुआ। संन्यासी को प्रणाम कर वह वहां से चला। थोड़ी दूर जाने पर उसके मन में एक विकल्प उठा, पारसमणि ही यदि सबसे बढिया होती, तो संन्यासी इसे क्यों छोड़ता? संन्यासी के पास इससे भी बढिया कोई वस्तु है। 
 
वह फिर आया और प्रणाम कर बोला, 'बाबा! मुझे यह पारसमणि नहीं चाहिए, मुझे वह दो जिसे पाकर तुमने इस पारसमणि को ठुकरा दिया।'

कहने का अर्थ यह कि पारसमणि को ठुकराने की शक्ति किसी भौतिक सत्ता में नहीं हो सकती। अध्यात्म ही एक ऎसी सत्ता है, जिसकी दृष्टि से पारसमणि का पत्थर से अधिक कोई उपयोग नहीं है।  आनन्द के स्त्रोत का साक्षात् होने पर आदमी उसे वैसे ही ठुकरा देता है, जैसे संन्यासी ने पारसमणि को ठुकराया था। हमारी ठीक कस्तूरी मृग की दशा हो रही है। कस्तूरी नाभि में है और मनुष्य कस्तूरी की खोज में है।

Friday 17 August 2012

वेश का आग्रह


 गांधीजी के आश्रम में एक प्रसिद्ध संन्यासी पहुंचा और बोला- 'मैं आपके आश्रम में रहकर जीवन बिताना चाहता हूं, आप जैसा चाहें राष्ट्र-निर्माण में मेरा उपयोग करें। इसे मैं अपना परम सौभाग्य समझूंगा।' 

गांधीजी ने कहा- 'आश्रम तो आप जैसे सत्पुरुषों के लिए ही होते हैं, किंतु यहां रहने के लिए आपको अपने इन गेरूवे वस्त्रों का परित्याग करना पड़ेगा।' गांधी की बात संन्यासी को अच्छी नहीं लगी। गेरूवे वस्त्रों को छोड़ने की बात में उसने अपना अपमान समझा। फिर भी संयम रखकर गांधीजी से कहा- 'ऎसा कैसे हो सकता है? मैं संन्यासी हूं। गेरूवे वस्त्र का त्याग कर कोई अन्य वस्त्र धारण करना संन्यास छोड़ने जैसी बात होगी।' 

गांधीजी ने उन्हें समझाते हुए कहा- 'इन गेरूवे वस्त्रों को देखते ही हमारे देशवासी इन्हें धारण करने वालों की पूजा शुरू कर देते हैं। भगवान के समान मानने लगते हैं। इन वस्त्रों के कारण लोग आप द्वारा की जाने वाली सेवा को स्वीकार नहीं करेंगे। भारत का कोई भी धार्मिक आदमी किसी साधु-संन्यासी से सेवा लेना नहीं चाहेगा। जो वस्तु या प्रतीक हमारे सेवा कार्य में बाधा डाले, उसे छोड़ देना चाहिए। फिर संन्यास तो एक मानसिक प्रवृत्ति है। वेश को छोड़ देने से संन्यास भाव कैसे समाप्त हो जाएगा? भगवा वस्त्र पहने यहां आपको कोई सफाई का कार्य कौन करने देगा?'  गांधीजी की बात संन्यासी को सत्य और सही प्रतीत हुई और उन्होंने अपने गेरूवे वस्त्र उतार दिए।

Wednesday 8 August 2012

क्षमताएं एक सी नहीं

Wednesday, 08 Aug 2012 4:21:00 hrs IST

प्राचीन समय में वैद्य रोगी की नाड़ी देखकर सारा निदान कर देते थे। वैद्यजी ने एक रोगी की नाड़ी देखी और कहा, 'सर्दी का मौसम है। तुम गोंद या मेथी के लड्डू बनवा लो और उसका सेवन करो।' इसके बाद वैद्यजी ने दूसरे रोगी को देखना शुरू किया। जांच करने के बाद उन्होंने कहा, 'तुम गरिष्ठ भोजन को बिल्कुल छोड़ दो। सिर्फ, रूखी चपाती और रूखा खांखरा खाओ।' जैसे ही वैद्यजी ने रोगी को यह पथ्य बताया, उसके चेहरे पर अप्रसन्नता के भाव आ गए। वह बोला, 'वैद्यजी! चिकित्सक के लिए सब बराबर होते हैं। किंतु आप तो भेदभाव कर रहे हैं। 
 
किसी को घी और मेवा-मिष्ठान खाने की सलाह देते हैं और किसी को रूखी रोटी, यह न्यायपूर्ण बात नहीं है।' कोई पैसे वाला रोगी रहा होगा। उसने जब ऎसी बात कही तो वैद्य ने कहा, 'हमारे यहां फीस सबकी बराबर है, फिर भेदभाव की बात कहां से आ गई? जहां तक पथ्य की बात है, वह शरीर की स्थिति के अनुसार बताया जाता है। 

अभी तुमसे पहले जो रोगी मैंने देखा, उसके शरीर को पोषक तत्वों की जरूरत है।
उनके अभाव में उसका शरीरबल क्षीण हो रहा है और उसके कारण अन्य रोगों के भी सक्रिय होने की संभावना है। इसलिए मैंने उसे पौष्टिक भोजन करने का परामर्श दिया है और जहां तक तुम्हारी बात है, तुम्हारा पाचनतंत्र बहुत कमजोर हो रहा है। गरिष्ठ भोजन कर तुमने अपने पाचनतंत्र का काफी नुकसान कर लिया, इसलिए तुम्हें तेल-घी युक्त चीजों के सेवन से बचना है।' कहने का तात्पर्य यह कि सबकी अलग-अलग स्थितियां हैं।

Monday 6 August 2012

एक बच्चे की सीख

Monday, 06 Aug 2012 7:27:59 hrs IST

बायजीद नाम का एक मुसलमान फकीर हुआ है। वह गांव से गुजर रहा था। सांझ का समय था, वह रास्ता भटक गया। तभी उसने एक बच्चे को हाथ में दीपक ले जाते हुए देखा। उसने बच्चे को रोककर पूछा, 'यह दीया किसने जलाया और इसे लेकर तुम कहां जा रहे हो?'
 
बच्चे ने कहा, 'दीया मैंने ही जलाया है और इसे मैं मंदिर में रखने के लिए जा रहा हूं।' बायजीद ने फिर पूछा, 'क्या यह पक्की बात है कि दीया तुमने ही जलाया है?' ज्योति तुम्हारे ही सामने जली है? अगर ऎसी बात है तो तुम मुझे बताओ कि ज्योति कहां से आई और कैसे आई?'

उस बच्चे ने बायजीद की ओर गौर से देखा और फिर फूंक मारकर दीये को बुझा दिया। दीया बुझाने के बाद उस बच्चे ने पूछा, 'अभी आपके सामने ज्योति समाप्त हो गई। वह ज्योति कहां गई और कैसे चली गई, कृपाकर आप मुझे समझाएं।'

बच्चे के इस प्रश्न से बायजीद अवाक् रह गया। उसने बच्चे से कहा, 'मुझे आज तक भ्रम था कि मैं ही जानता हूं कि जीवन कहां से आया और कहां चला गया। आज मुझे अपनी हकीकत का पता चला है। जो मैं गुरूओं और बड़े औलियों से नहीं सीख पाया, वह मैं तुमसे सीख कर जा रहा हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता।' किसी को भी यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि वह एक सच्चे धर्म का अनुयायी है और दूसरे सब भटके हुए हैं।

जरूरत है हमारा दृष्टिकोण बदले।  कोई व्यक्ति यह धारणा क्यों करे कि वही सब कुछ जानता है। सब उसी से सीखें। सीख तो एक बच्चे से भी ली जा सकती है।

Friday 3 August 2012

सदाचरण जरूरी

Friday, 03 Aug 2012 2:36:55 hrs IST
प्रश्न होता है— धर्म का असर क्यों नहीं दिखाई देता? यही प्रश्न एक बार एक महात्मा से भी किसी ने पूछा, 'आज धर्म का असर क्यों दिखाई नहीं दे रहा है?' महात्मा ने कहा, 'तुम बताओ, राजगृह यहां से कितनी दूर है?'
'दो सौ मील।'
'तुम जानते हो?'
'हां, मैं जानता हूं।'
'क्या तुम राजगृह का नाम लेते ही राजगृह पहुंच गए या पहुंच जाते हो?' महात्मा ने पूछा।
'पहुंचूंगा कैसे? अभी तो मैं यहां आपके पास खड़ा हूं। राजगृह के लिए प्रस्थान करूंगा, तो कई दिन चलने के बाद वहां पहुंचूंगा।'
महात्मा ने कहा, 'तुम्हारे इस उत्तर में ही मुझसे पूछी गई बात का उत्तर छिपा है। तुम राजगृह को जानते हो, किन्तु जब तक वहां के लिए प्रस्थान नहीं करोगे, राजगृह नहीं पहुंच पाओगे। यही बात धर्म मार्ग के लिए भी है। धर्म को जानते हो, पर जब तक उसके नियमों पर नहीं चलोगे, उस पर आचरण नहीं करोगे, तब तक धर्म का असर कैसे होगा?'
धर्म के उपादानों की उपेक्षा की गई, तो धर्म कभी भी आचरण में नहीं उतरेगा। धर्म के मूल कारकों में शामिल हैं - क्षमा और सहनशीलता। यह एक बहुत बड़ी शक्ति है। अपेक्षा तो यही है कि जीवन के प्रारम्भ में ही बदलाव आए और यदि ऎसा न हो सके, तो अवस्था के साथ-साथ अपने स्वभाव स्वभाव और वृत्तियों में सकारात्मक परिवर्तन शुरू कर देना चाहिए।

Monday 30 July 2012

वेश की लाज

Wednesday, 25 Jul 2012 2:00:19 hrs IST

राजा भोज के दरबार में एक बहुरूपिया पहुंचा और दक्षिणा मांगी। राजा ने कहा, 'कलाकार को उसकी कला के प्रदर्शन पर पुरस्कार या पारितोषिक तो दिया जा सकता है, लेकिन दक्षिणा नहीं।' स्वांग दिखाने के लिए तीन दिन का समय मांग कर वह बहुरूपिया चला गया।
दूसरे दिन एक पहाड़ी पर एक जटाजूटधारी संन्यासी को देखकर चरवाहों का समूह एकत्रित हो गया। संन्यासी अविचल समाधिस्थ रहे। भिक्षा ग्रहण करने का भी उन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। तपस्वी की चर्चा सुन राजधानी के धनी- मानी लोग उस पहाड़ी पर उमड़ पड़े। पर संन्यासी की समाधि नहीं टूटी। राजा भोज का प्रधानमंत्री भी भेंट लेकर पहुंचा और आशीर्वाद की कामना की। किन्तु सब बेकार। राजा स्वयं चलकर उस तपस्वी के पास पहुंचे, किन्तु तपस्वी की समाधि अविचल रही। निराश होकर राजा भी लौट आए। 
इसके अगले दिन बहुरूपिया राजा के दरबार में उपस्थित हुआ और तपस्वी के स्वांग के बारे में बताया। बहुरूपिया ने पुरस्कार की मांग की। राजा भोज विस्मित रह गए उसकी कला पर। फिर बोले, 'मूर्ख मैं खुद तेरे पास गया। रत्न भेंट किए, पर तू ने कुछ न लिया और अब पुरस्कार मांग रहा है। तब संन्यासी ने कहा, 'अन्नदाता, उस समय दुनिया के सारे वैभव तुच्छ थे। तब मुझे संन्यासी के वेश की लाज रखनी थी। लेकिन अब तो पेट की आग और कला का परिश्रम अपना पुरस्कार चाहता है। अब सवाल यह है कि जो सचमुच संन्यास धारण किए है, वे पैसों पर अवलम्बित हो जाएं तो उन्हें क्या कहा जाए?

Thursday 19 July 2012

कुलीनता का बोध

Wednesday, 18 Jul 2012 2:57:33 hrs IST
पुराने जमाने की बात है। एक प्रज्ञाचक्षु लाठी के सहारे जा रहा था। जिसके आंख नहीं होती, उसे शिष्ट भाषा में 'सूरदास' कहते हैं। सामने से कई आदमियों की एक टोली आ रही थी। प्रज्ञाचक्षु के पास वह टोली आई, तो उसमें से एक भाई ने कहा, 'अंधा बाबा राम-राम।' प्रज्ञाचक्षु ने कहा, 'गोला भाई, राम-राम।'उसमें से एक ठाकुर साहब ने सामने आकर कहा, 'सूरदासजी, राम-राम।' सूरदास ने कहा, 'हां, ठाकरां, राम-राम।'तभी किसी ने कहा, 'सूरदासजी, आपने 'गोला' और 'ठाकुर' की पहचान कैसे कर ली? आपके तो नेत्र ही नहीं हैं? ये कैसे सम्भव हो सका है?'

सूरदास ने कहा, 'बोली के कारण मैंने पहचान लिया। जिसने 'अंधा' कहा, वह निश्चित ही कोई निम्न जाति का ही व्यक्ति हो सकता है। जो भी शालीन, शिष्ट भाषा का प्रयोग करेगा, वह अव्यक्त रूप से अपनी कुलीनता का भी बोध करा देगा। सूरदास का सम्बोधन देने वाला कोई ठाकुर ही हो सकता है।'

हम वाचिक अहिंसा का विकास करें, क्योंकि परस्पर के सामुदायिक जीवन के लिए वह बहुत जरूरी है। स्वयं अपने विकास के लिए तो जरूरी है ही। ऎसा लगता है कि अभी भी भारतीय मानस में वाचिक अहिंसा का समुचित विकास नहीं हुआ है। बहुत से लोग यह जानते ही नहीं हैं कि वचन से भी हिंसा हो सकती है। बहुत से लोगों की भाषा आज भी लट्ठमार है। अहंकार, आवेश, उत्तेजना, स्वयं को उच्च और दूसरों को हीन मानने की प्रवृत्ति वाणी में मिठास नहीं रहने देती है।

Thursday 12 July 2012

खुद की हैसियत देखें

Thursday, 12 Jul 2012 2:27:57 hrs IST

एक जनजाति का आदमी शहर में आया। बहुत दिनों से उसने शहर के बारे में सुन रखा था, किंतु शहर देखा नहीं था। एक दुकान में वह गया, जहां बड़ी-बड़ी पेटियां रखी थीं। उसने उन पेटियों के बारे में पूछा। उसे बताया गया कि दिनभर कपड़े पहनो और रात को उन्हें उतार कर इन पेटियों में सुरक्षित रख दो। अपनी जिज्ञासा शांत कर वह जाने लगा तो दुकानदार ने कहा, 'इतनी देर से तुम इन पेटियों को देख रहे हो। इनके बारे में हर तरह की जानकारी भी तुमने ले ली, अब ऎसी क्या बात हो गई कि तुमने इन्हें लेने का विचार त्याग दिया?'
 
देहाती ने कहा, 'इनके बारे में जानने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि ये मेरे काम की नहीं है। मैं इनका क्या करूंगा? आपने कहा कि कपड़े रखने की चीज है। मेरे पास मात्र दो ही कपड़े हैं। इन्हें खोलकर पेटी में रख दूं तो पहनूंगा क्या?' 

बड़े मर्म की बात है। कोरी पेटी को ही मत देखो, अपनी हैसियत को भी देखो। कपड़े पर भी विचार करो। पास में कपड़ा है तो पेटी का उपयोग है। पास में कपड़ा नहीं तो खाली पेटी का कोई उपयोग नहीं है। 

कहने का अर्थ यह कि वे आदमी दुखी बनते हैं, जो केवल वर्तमान को देखते हैं, भविष्य को नहीं देखते, परिणाम को नहीं देखते। वर्तमान को देखते हैं, किंतु परिणाम को नहीं देखते कि इसका परिणाम क्या होगा? ऎसे आदमी दुखी बनते हैं। पेटी तो बहुत बड़ी खरीद ली, किंतु पास में कपड़ा है या नहीं, इस पर भी तो विचार कर लेना चाहिए। मकान बहुत बड़ा बना लिया, किंतु रहने वाला कोई है या नहीं?

Tuesday 10 July 2012

अहंकार भी काम का

Tuesday, 10 Jul 2012 3:29:47 hrs IST

महाराणा प्रताप ने जंगलों में अपार कष्टों को झेलते हुए एक बार कमजोरी का अनुभव किया। वन में बच्चों के लिए बनाई गई घास की रोटी भी जब कोई जानवर उठा ले गया तो मानसिक रूप से वे टूट गए। उस समय उन्होंने स्वयं को बहुत दयनीय स्थिति में पाकर अकबर से संघि कर लेनी चाही। उनके एक भक्त-चारण को इस बात का पता चला तो उसने महाराणा को एक दोहा लिखकर भेजा। 

उसमें था कि इस धरती पर हिन्दू कुलरक्षक एक आप ही थे, जो मुगल-बादशाह से लोहा लेते रहे। किसी भी स्थिति में हार नहीं मानी, मस्तक गर्व से सदा ऊंचा रखा। वह मस्तक अब अकबर के सामने झुकने जा रहा है, तो हम स्वाभिमानी मेवाड़ी किसकी शरण लें? आपका निर्णय हमें इसी तरह आश्चर्यचकित करता है, जैसे सूर्य को पूरब की बजाय पश्चिम में उगते देखने पर होता है।

कहते हैं कि उस एक दोहे को पढ़कर महाराणा का स्वाभिमान पुन: जागृत हो गया। संघिपत्र को फाड़कर फेंक दिया और अपनी शक्ति को फिर से संगठित कर मेवाड़ के शेष्ा भाग को अकबर के अघिकार से मुक्त कराने के प्रयत्न में जुट गए। चारण को धन्यवाद देते हुए लिखकर भेजा कि सूरज जिस दिशा में उगता है , उसी दिशा में उगेगा, तुम चिंता मत करो। 

अहंकार को जगाना कभी-कभी व्यावहारिक जगत में बड़े काम का होता है। लोग किसी प्रसंग में कह देते हैं, 'इतने बड़े होकर जब आप ही ऎसा काम करेंगे तो किसी अन्य से क्या आशा की जाए?' इस बात से आदमी संभल जाता है और कभी अवांछित कार्य नहीं करता।

परप्रतिष्ठित अहंकार

Monday, 09 Jul 2012 2:27:36 hrs IST

एक है परप्रतिष्ठित अहंकार। अर्थात दूसरा कोई व्यक्ति अगर ऎसी बात कह देता है, जिससे अहंकार जाग्रत हो जाता है तो उसे परप्रतिष्ठित अहंकार कहा जाता है। बाजार से लौटकर आई पत्नी पति को अपने द्वारा खरीदी गई साडियां दिखा रही थी। दो हजार और ढाई हजार रूपए की कीमती साडियां देखकर पति को किंचित गुस्सा आया। गुस्से में उसने केवल इतना ही कहा, इतनी महंगी साडियां खरीदने की क्या जरूरत थी। यह महंगाई के जमाने में पैसे का अपव्यय है, बर्बादी है।

पत्नी बोली- 'मैं आपकी बात से सहमत हूं कि इतनी कीमती साडियां मुझे नहीं खरीदनी चाहिए। लेकिन पड़ोस में गुप्ताजी की पत्नी दो हजार रूपए की साडियां खरीदकर लाई और मोहल्ले भर में दिखाती रही। तब मेरे सामने आपकी प्रतिष्ठा का सवाल आ गया।' पत्नी की बात सुनकर पति का गुस्सा एकदम काफूर हो गया। उसके मन में तत्काल दूसरी भावनाएं उत्पन्न हो गईं। मेरी पत्नी मेरी प्रतिष्ठा का कितना ध्यान रखती है। पति के मन में अहंकार जाग गया। कहने का अर्थ यह कि अहंकार गुस्से का शमन भी करता है। एक नियम है कि मनुष्य की दोनों प्रकृतियां साथ-साथ काम नहीं करतीं। 

जब क्रोध आता है तो उस समय अहंकार दबा रहेगा। जब अहंकार जाग्रत हो गया तो फिर क्रोध दब जाएगा। दोनों स्थितियां साथ-साथ नहीं चलतीं। अहंकार को जाग्रत कर काम कराना भी एक कला है। अहंकार की स्थिति में मनुष्य सब कर देता है। परप्रतिष्ठित अहंकार भी यह है। यह अपने आप नहीं आया, दूसरे से प्रशंसा सुनकर आ गया।

Friday 6 July 2012

आकांक्षाएं असीम

Tuesday, 03 Jul 2012 2:07:00 hrs IST

एक धनी आदमी अपनी दुकान पर बैठा था। इतने में चार-पांच व्यक्ति उसकी दुकान के सामने कार से उतरे। उनके व्यक्तित्व से लग रहा था कि संभ्रान्त घरों के लोग हैं। सेठ ने उनका स्वागत किया और आने का आशय पूछा। उन लोगों में से एक ने कहा, 'हमने सुना है कि आपके पुत्र ने अभी-अभी व्यापार प्रबंधन का कोर्स किया है। मेरे भी एक ही लड़की है। वह उच्च शिक्षित है। हम चाहते हैं कि विवाह के लिए अपनी स्वीकृति प्रदान करें। 

सेठ ने कहा, आपका प्रस्ताव सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई। किन्तु अभी मैं 'हां' कहने की स्थिति में नहीं हूं। वजह यह है कि लड़का अरूचि दिखा रहा है। पहले भी लोग आए थे और जाते-जाते पांच करोड़ देने की बात कह गए। लड़का अभी दो नई इंडस्ट्री शुरू करना चाहता है। ऎसी स्थिति में मैं क्या करूं?'

आगन्तुकों से सेठ ने पांच करोड़ की बात कहकर यह सूचना दे दी कि इससे ज्यादा हो तो बात की जा सकती है। सेठ ने बही खाते भी सामने रख दिए, जिसमें करोड़ों का टर्न ओवर था। 

सेठ ने बही खाते सामने रखे ही थे कि कई लोग जीप से उतरे और उन्होंने सेठ को यह कहते हुए घेर लिया कि हम विवाह के लिए नहीं आए हैं। हम तो आयकर वाले हैं। सेठजी अपने जाल में खुद ही फंस चुके थे।

कोरी पूजा का अर्थ नहीं

Thursday, 05 Jul 2012 3:34:18 hrs IST

एक विद्यार्थी अपने काम में बहुत सफल हो रहा था। दूसरे विद्यार्थियों ने उससे पूछा कि तुम्हारी सफलता का राज क्या है? उसने कहा, 'प्रात:काल मैं सरस्वती की पूजा करता हूं। उनका स्तोत्र बोलता हूं, इस कारण मैं सफल हो रहा हूं।' एक विद्यार्थी ने इस बात को सफलता का गुर मानकर उसका अनुकरण करने का निश्चय किया। सरस्वती की प्रतिमा ले आया। विघिपूर्वक उसके सामने स्तोत्र बोलना शुरू कर दिया। जब परीक्षा का परिणाम आया तो देखा वह अनुत्तीर्ण था। वह छात्र उसके पास गया, जिसने सरस्वती की पूजा को अपनी सफलता का कारण बताया था। बोला, 'मैंने तुम्हारा अनुकरण किया, फिर भी मुझे सफलता नहीं मिली, ऎसा क्यों?' उसने कहा, 'ऎसा तो नहीं होना चाहिए। अच्छा बताओ, पूजा के साथ तुमने पढ़ाई तो मन लगाकर की या नहीं?' 'वह तो नहीं की। जब मन लगाकर पढ़ना ही है, तो फिर पूजा-पाठ क्यों करता?'
'यही तुम्हारी सबसे बड़ी भूल रही। अच्छा जो हुआ, सो हुआ, अब मैं तुम्हें एक श्लोक सुनाता हूं, सुनो—
उद्यम: साहसं धैर्य, बुद्धि: शक्ति: पराक्रम:।
षडेते यत्र विद्यन्ते, तत्र देव: सहायकम्।।
देवता सहायता कहां करता है? जहां उद्यम है, साहस है, धैर्य है, बुद्धि है, शक्ति है और पराक्रम यानी पुरूषार्थ है। ये छह बातें हैं, वहां देवता भी सहायक बनते हैं। जहां यह सब नहीं, कोरी पूजा है, वहां कोई देवता पास भी नहीं फटकता। मेरी सहायता देवता करते हैं, क्योंकि मैं इन छह में विश्वास करता हूं। हमें ऎसा काम करना चाहिए, जो वास्तव में ज्ञान और आचार की दूरी को मिटा सके।

Wednesday 20 June 2012

अहंकार न करें


एक सेठ ने सोचा कि मैं मेरी मां की ऎसी सेवा करूं जो सबको याद रहे। मेरा नाम सारी दुनिया में फैल जाए। यह सोचकर उसने एक सोने की चौकी बनाई। बहुत बड़ी चौकी। एक दिन पूजा का समय रखा। पंडितजी को बुला लिया। सारा कार्यक्रम विधिवत चला और जब कार्य संपन्न होने को आया तो सेठ उठा और बोला कि 'आज मैंने अपनी मां की अर्चना की है। अब अर्चना संपन्न हो रही है और मैं एक घोष्णा करने जा रहा हूं कि जिस चौकी पर मेरी मां बैठी है, वह चौकी मैं पंडितजी को देता हूं।

सेठ ने चौकी पंडितजी को दे दी, पर आगे बोले (आदमी का अहं बोला है) 'पंडित जी! इतना बड़ा दानी कोई मिला आपको दुनिया में आज तक।' सारी बात बदल गई। सारे लोग देखते रह गए सेठ की ओर। पंडितजी भी बड़े स्वाभिमानी थे, त्यागी थे। अगर लोभी होते तो सह लेते। वह खडे हुए। उन्होंने अपनी जेब से एक रूपया निकाला और चौकी पर  रखकर बोले— 'सेठ साहब! इस चौकी पर एक रूपया अघिक रखकर आपको लौटा रहा हूं। मैं आपसे पूछना चाहता हूं, क्या इससे बड़ा त्यागी आपको कोई मिला?'

आदमी को करणीय का अहंकार भी बड़ा सताता है। जब ज्ञाता-द्रष्टा की चेतना जाग जाती है तो दोनों स्थितियां निष्पन्न होती हैं। वह अकरणीय काम तो करता ही नहीं और करणीय का अहंकार भी नहीं करता। यह दो प्रकार की चेतना निष्पत्ति में आती है। कहने का आशय यह कि कर्तव्य करें तो उसका अहंकार करें।


Sunday 17 June 2012

सुधारने की कला


पूर्व राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन एक प्रख्यात शिक्षाशास्त्री ही नहीं, एक बेहतरीन इंसान भी थे। उनके जीवन का एक प्रसंग है—परिवार में एक पुराना नौकर था। बहुत ईमानदार और विश्वस्त, लेकिन एक बड़ा अवगुण उसमें यह था कि वह आलसी  था। सवेरे जल्दी उठ नहीं पाता था। नौकर अगर आलसी हो तो मालिक की कठिनाइयां बढ़ ही जाती हैं। वे चाहते तो एक मिनट में उसकी छुट्टी कर सकते थे। बड़े आदमियों को नौकर-चाकरों की क्या कमी? 

बड़े लोग अपने अधीनस्थ की गलती पर उन्हें बर्खास्त कर देते हैं। लेकिन डॉक्टर जाकिर हुसैन ने ऎसा नहीं किया। बिगड़े को बनाने की कला वे जानते थे। आखिर शिक्षाशास्त्री थे। एक दिन सवेरे वे चाय का कप-प्लेट लिए सोए हुए नौकर के पास गए और धीरे से बोले— 'मालिक उठो।'

एक मंद और मीठी आवाज नौकर के कान में पड़ी तो वह चौंक पड़ा कि मालिक कहकर यह कौन मुझे संबोधित कर रहा है? तानी हुई चादर से मुंह निकालकर देखा तो देखा कि सामने डॉक्टर साहब चाय की प्याली लिए खड़े हैं। एक झटके के साथ वह उठकर बैठ गया। उस समय शर्म और संकोच से जैसे वह गड़ गया। 

सिर झुकाए हुए नौकर बोला— 'मुझे क्षमा करें। आज के बाद मैं कभी आपको शिकायत का मौका नहीं दूंगा।' और सचमुच जब तक वह डॉक्टर साहब के यहां रहा, अप्रमादी बनकर रहा। उसने फिर कभी शिकायत का मौका नहीं दिया।

Sunday 10 June 2012

मन से भय निकालें

Friday, 04 May 2012 11:02:53 hrs IST (Rajasthan Patrika)
परतंत्रता दु:ख है। स्वतंत्रता सुख है, क्योंकि वहां कोई भय नहीं होता। परतंत्रता में भय होता है। आदमी डरता है कि कोई गलती होने पर दंड मिलेगा। दंड का यह भय ही दुख का कारण बनता है। कन्फ्यूशियस की एक कहानी है—

एक पिंजरे में बाज, बिल्ली और चूहा तीनों को बंद कर दिया गया और उसी पिंजरे में मांस का एक बड़ा टुकड़ा रख दिया गया। तीनों प्राणी उस पिंजरे में बंद हैं। तीनों भूखे हैं, किंतु तीनों ही मांस को खा नहीं रहे हैं। सबके साथ कन्फ्यूशियस भी इस दृश्य को देख रहे हैं। वह ज्ञानी थे, इसलिए लोगों ने उनसे पूछा— 

'ये प्राणी सामने भोजन होने पर भी उसका उपभोग क्यों नहीं कर रहे हैं?' एक-दूसरे को देख क्यों रहे हैं? कन्फ्यूशियस ने कहा— 'चूहा बिल्ली से डर रहा है। बिल्ली बाज से डर रही है, इसलिए दोनों मांस की ओर ललचाई दृष्टि से देख रहे हैं, किंतु उसे खा नहीं रहे हैं।'
'लेकिन बाज क्यों नहीं खा रहा है?'

'बाज इसलिए नहीं खा रहा है, क्योंकि वह असमंजस में है। वह यह सोच रहा है कि चूहे को खाऊं या बिल्ली को खाऊं? इसी ऊहापोह में वह कोई निर्णय नहीं ले पा रहा है। ये तीनों ही भूख से मर जाएंगे, किंतु सामने रखे आहार का उपभोग नहीं कर सकेंगे।

भय के कारण आदमी सामने रखे आहार को भी भोग नहीं सकता। अभय सुख का सबसे बड़ा कारण है। अहिंसा का सबसे पहला सूत्र है अभय।

Thursday 7 June 2012

अहंकार से दूर रहें

Monday, 04 Jun 2012 9:18:52 hrs IST
एक मूर्तिकार सजीव मूर्तियां बनाने में सिद्धहस्त था। उसकी बनाई मूर्तियों को देखकर ऎसा लगता था कि वे अब तुरन्त ही बोल पड़ेंगी। इतना बड़ा शिल्पकार होने के बावजूद उसमें एक दोष्ा यह था कि वह अहंकारी था। अपनी कला पर उसे बहुत घमण्ड था।
जब उसका आखिरी समय आने लगा, तो उसने सोचा कि यमदूत को तो आना ही है। उसने यमदूतों को भ्रमित करने के लिए अपनी जैसी दस मूर्तियां बना डालीं। अन्तिम समय में उन मूर्तियों के बीच जाकर बैठ गया।

यमदूत आए। एक जैसे इतने आदमी को देखकर वह भ्रमित हो गए कि किसको ले जाना है। सही आदमी को न ले जाकर गलत आदमी को ले जाते हैं तो विघि का विधान टूटेगा और मूर्तियों को तोड़ने की उन्हें आज्ञा नहीं मिली हुई थी। अचानक एक यमदूत को उसके एक बड़े दुर्गुण 'अहंकार' की याद आ गई। वह जानता था कि 'अहंकार' पर पड़ी चोट को इंसान बर्दाश्त नहीं कर सकता। 

उसने कहा, 'काश, इन मूर्तियों को बनाने वाला मुझे मिलता तो उसे बताता कि एक गलती कहां रह गई है। एक छोटी-सी चूक मूर्तिकार की मेहनत पर पानी फेर रही है। इतना सुनना था कि मूर्तिकार का अहं जाग उठा। वह तुरन्त बोल उठा, 'कैसी त्रुटि। कहां रह गई गलती।' उसके मुंह से इतना ही निकलना था कि यमदूत ने उसकी चोटी पकड़ ली। और बोला, यही है त्रुटि। तुम अपने अहं पर काबू नहीं रख पाए। तुम्हें मालूम होना चाहिए था कि बेजान मूर्तियां बोला नहीं करती।

Friday 1 June 2012

सीमाओं में न बंधें


Friday, 01 Jun 2012 10:04:12 hrs IST
एक राजा ने किसी योग्य गुरू की तलाश शुरू की। राज्य में घोषणा  करवा दी, जिसका आश्रम सबसे बड़ा होगा, उसे मैं अपना गुरू स्वीकार करूंगा। घोषणा  होने की देर थी। जगह-जगह से संवाद आने लगे कि मेरा आश्रम बहुत बड़ा है। सब अपने-अपने आश्रम का नक्शा लेकर राजमहल के दरवाजे पर इकटे होने लगे। 


राजा ने धैर्य से सबकी बात सुननी शुरू की। अंत में एक तेजस्वी साधु की बारी आई। राजा ने उससे पूंछा, 'आपने तो बताया ही नहीं। आपका आश्रम कितना बड़ा है?' संन्यासी ने कहा, 'राजन्! मैं यहां कुछ नहीं बताऊंगा। आप मेरे साथ जंगल में चलें, वहां मेरा आश्रम स्वयं देख लें।'
राजा उस साधु के साथ जंगल में गया। वहां जाकर वह साधु आसन बिछाकर एक वृक्ष के नीचे बैठ गया। राजा ने कहा, 'महाराज! कहां है आपका आश्रम?' 

साधु ने कहा, 'राजन्! नीचे धरती और ऊपर आकाश और इसके बीच में सारा चराचर जगत मेरा आश्रम है। आपके पास कोई फीता हो तो इसे माप लें।' राजा ने तत्काल उसे अपना गुरू मान लिया। 

कहने का अर्थ यह कि चाहे धर्म की सीमा हो या आश्रम की, जो सीमा में बंध जाता है, उसका दृष्टिकोण और चिंतन भी सीमित रह जाता है। यह सीमा कोई बहुत अच्छी बात नहीं होती। असीम की बात होनी चाहिए, मोक्ष और परमात्मा की बात होनी चाहिए। आज सीमाएं भी छोटी होती जा रही हैं। विस्तार नहीं संकुचन हो रहा है।

Thursday 31 May 2012

खुद को टटोलें


Thursday, 31 May 2012 9:44:49 hrs IST
दो आदमी यात्रा पर निकले। दोनों की मुलाकात हुई। दोनों यात्रा में साथ हो गए। सात दिन बाद दोनों के पृथक होने का समय आया तो एक ने कहा, 'भाईसाहब! एक सप्ताह तक हम दोनों साथ रहे। क्या आपने मुझे पहचाना?' दूसरे ने कहा, 'नहीं, मैंने तो नहीं पहचाना।' वह बोला, 'माफ करें मैं एक नामी ठग हूं। लेकिन आप तो महाठग हैं। आप मेरे भी उस्ताद निकले।'

'कैसे?' 'कुछ पाने की आशा में मैंने निरंतर सात दिन तक आपकी तलाशी ली, मुझे कुछ भी नहीं मिला। इतनी बड़ी यात्रा पर निकले हैं तो क्या आपके पास कुछ भी नहीं है? बिल्कुल खाली हाथ हैं?'

'नहीं, मेरे पास एक बहुमूल्य हीरा है और थोड़ी-सी रजत मुद्राएं।' 
'तो फिर इतने प्रयत्न के बावजूद वह मुझे मिली क्यों नहीं?'

'बहुत सीधा और सरल उपाय मैंने काम में लिया। मैं जब भी बाहर जाता, वह हीरा और मुद्राएं तुम्हारी पोटली में रख देता था। तुम सात दिन तक मेरी झोली टटोलते रहे। अपनी पोटली संभालने की जरूरत ही नहीं समझी। तुम्हें मिलता कहां से?' 

कहने का अर्थ यह कि हम अपनी गठरी संभालने की जरूरत नहीं समझते। हमारी निगाह तो दूसरों के झोले पर रहती है। यही हमारी सबसे बड़ी समस्या है। अपनी गठरी टटोलें, अपने आप पर दृष्टिपात करें तो अपनी कमी समझ में आ जाएगी। यह समस्या सुलझा सकें तो जीवन में कहीं कोई रूकावट और उलझन नहीं आएगी।

Tuesday 29 May 2012

प्यार ही स्वर्ग


Friday, 25 Nov 2011 8:21:24 hrs IST
बहुत पुरानी बात है। मेरी एवं टॉमस का जीवन आनन्दमय था। दोनों एक दूसरे से प्रेम करते थे तथा परस्पर समर्पित थे। गरीब होने के बावजूद वे अपना विवाह दिवस मनाते तथा एक-दूसरे को उपहार देते। दोनों में मन-मुटाव या झगड़े जैसी चीज किसी ने कभी सुनी ही न थी। एक बार उनका विवाह दिवस निकट आया। समय का फेर, दोनों के पास कुछ भी न था। उनकी जेबें खाली थीं। गरीबी के कारण उन्हें कहीं से उधार मिलने की उम्मीद भी न थी। दोनों के मन में उधेड़बुन चल रही थी कि इस वर्ष उपहार में क्या दिया जाए और उपहार की व्यवस्था कैसे की जाए?

अचानक मेरी को ध्यान आया कि टॉमस के पास सुन्दर घड़ी है, किन्तु उसमें पट्टा नहीं है। अत: क्यों न मैं अपने सुनहरे बाल बेचकर उसके लिए पट्टा खरीद लूं। यह विचार आते ही वह नाई के पास गई तथा बाल कटवा लिए और उसे बेचकर आ गई। जो पैसे मिले, उससे उसने टॉमस की घड़ी के लिए एक सुनहरा सा पट्टा खरीदा और खुशी-खुशी घर लौट आई। 

इधर, टॉमस सोच रहा था कि मेरी के सुनहरे घुंघराले बाल में सुन्दर-सी क्लिप हो तो वह कितनी अच्छी लगेगी। यह विचार आते ही उसने घड़ी बेचकर क्लिप खरीद ली।

उपहार देने का समय आया। क्लिप कहां लगे, क्योंकि बाल तो नदारद थे। वैसे ही चैन कहां बंधे, क्योंकि घड़ी तो बिक चुकी थी। दोनों पति-पत्नी के प्रेमाश्रु बहने लगे। उनके लिए प्यार ही स्वर्ग था। इसीलिए तो कहा कि जीवन में प्यार से बढ़कर कुछ नहीं है।

Monday 28 May 2012

पहले पुरूषार्थ करें


Monday, 28 May 2012 9:24:23 hrs IST
एक आदमी बैलगाड़ी लेकर जा रहा था। मार्ग में एक जगह दलदल आया और बैलगाड़ी उसमें फंस गई। बैलों ने जोर मारा, लेकिन गाड़ी का पहिया कीचड़ में धंसता गया। बैलगाड़ी वाला गाड़ी में बैठा बैलों को तो ललकारता है, किंतु गाड़ी को आगे बढ़ाने में सहारा नहीं देता। तभी देवी का एक मंदिर दिखाई दिया तो गाड़ी वाले ने देवी-मां की गुहार लगाई और गाड़ी को निकाल देने की प्रार्थना की। 

कुछ देर बाद एक हट्टा-कट्टा आदमी वहां आया। उसने कहा, 'गाड़ी में बैठने से क्या होगा? आओ, गाड़ी से नीचे उतरो और मेरे साथ गाड़ी को आगे की ओर धक्का लगाओ।' बैलगाड़ी वाले ने कहा, 'मेरे धक्का देने से क्या होगा? गाड़ी खींचने के लिए बैल हैं न?' आगंतुक ने कहा, 'तुम्हें गाड़ी निकालनी है या नहीं।' गाड़ी वाले ने कहा, 'गाड़ी निकालने के लिए ही तो देवी मां से विनती कर रहा हूं।'उस व्यक्ति ने कहा, 'निकालनी है तो जैसा कह रहा हूं, वैसा करो।' हारकर गाड़ी वाला नीचे उतरा, पहिये में हाथ लगाकर आगे की ओर धक्का दिया। बैलों को भी सहारा मिला और गाड़ी कीचड़ से निकल गई।

आगंतुक ने गाड़ी वाले को नसीहत देते हुए कहा, 'जिस काम को हम कर सकते हैं, उसके लिए देवी-देवताओं को बुलाना, उनसे मदद की आशा करना अच्छी बात नहीं है। अपने पुरूषार्थ का प्रयोग करना सीखो। जहां अपनी शक्ति काम न करे, अपर्याप्त सिद्ध हो, वहां देवी-देवता की पुकार करनी चाहिए।'

Saturday 26 May 2012

सहनशक्ति भी हो


Monday, 02 Apr 2012 9:20:36 hrs IST
अनुशासन को वही मान सकता है, जिसमें सहिष्णुता है। बड़ा आदमी भी वही बन सकता है, जिसमें सहिष्णुता है। आज अनुशासन में रहना किसी को मान्य नहीं है। 
एक बारह-तेरह वर्ष  का लड़का नगर से निकल कर एक निर्जन स्थान पर पहुंच गया। वहां उसे एक झोंपड़ी दिखाई पड़ी। वह उत्सुकता से वहां पहुंच गया। देखा बाबाजी झोंपड़ी में बैठे कोई धार्मिक ग्रंथ पढ़ रहे हैं। लड़के को देखकर उन्होंने उसे पास बुलाया। पीने को जल दिया और सामान्य जानकारी ली। वे समझ गए कि लड़का परिवार से अप्रसन्न होकर आया है, परेशान है। पूछा 'बच्चा तुम चेला बनोगे।' बाबाजी ने पूछा चेला बनोगे, तो लड़का असमंजस में पड़ गया, क्योंकि चेला बनने का मतलब वह समझ नहीं पाया था। 

संभ्रांत परिवार का था, 'चेला' शब्द ही नहीं सुना था। उसने पूछा- 'बाबा! यह चेला क्या होता है?' बाबा ने कहा 'भोले हो, इतना भी नहीं जानते? एक होता है गुरू और एक होता है चेला। गुरू का काम है आदेश देना। चेले का काम है आज्ञा या हुक्म का पालन करना।' लड़के ने झटपट उत्तर नहीं दिया। बोला 'मुझे सोचने का अवसर दीजिए।' 

बाबा ने कहा 'सोच लो।' लड़का पांच मिनट तक सोचता रहा, फिर बाबा के पास आकर बोला-'मैंने विचार कर लिया। चेला बनना मुझे स्वीकार नहीं। गुरू बनाओ तो बन सकता हूं।' ऎसे गुरू जो चेला बनकर कभी न रहे, आज मुसीबत बन रहे हैं। आज यही समस्या है कि हर कोई गुरू बनना चाह रहा है।

छोटों की राय


Wednesday, 03 Aug 2011 8:37:19 hrs IST
प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री अपने सहयोगियों से किसी विषय पर चर्चा करते समय कई बार अपने किसी नौकर या माली से पूछते, 'क्यों भाई। तुम्हारी इस पर क्या राय है या तुम्हारा क्या ख्याल है?'

एक बार जब अपने किसी मित्र से वे गंभीर विषय पर चर्चा कर रह थे तो यही बात दोहराई और अपने नौकर से पूछा, 'क्यों, तुम्हारी क्या राय है?'
मित्र ने कहा, 'शास्त्री जी! मुझे आपका यह व्यवहार आज तक समझ में नहीं आया। मैं आपसे एक मसले पर चर्चा कर रहा हूं और आप नौकर से राय मांग रहे हैं।'

इस पर शास्त्री जी ने उस मित्र को एक घटना सुनाई- गुरुत्त्वाकर्षण सिद्धांत के जनक न्यूटन के घर उनकी बिल्ली ने बच्चे दिए। रात को जब घर के सारे दरवाजे बंद हो जाते तो बिल्ली और उसके बच्चे बाहर निकलने के लिए उत्पात मचाते। न्यूटन ने नौकर को बुलाकर कहा, 'इस दरवाजे में दो छेद कर दो, एक छोटा, एक बड़ा।' नौकर ने कहा, 'सर, दो छेद की तो जरूरत ही नहीं है, एक ही बड़ा छेद काफी है, क्योंकि जिस छेद से बिल्ली निकल जाएगी, उस छेद से उसके बच्चे भी बड़ी आसानी से निकल जाएंगे।'

यह बात सुनकर न्यूटन हैरान रह गए कि इतनी छोटी-सी बात उनकी समझ में क्यों नहीं आई? यह घटना बताकर शास्त्री जी ने कहा, 'कभी-कभी छोटे व्यक्ति की सलाह भी बड़े काम की साबित होती है।' कहीं-कहीं छोटे आदमी भी बड़े काम की बात सुझा देते हैं। अच्छी बात बच्चे से भी सीखी जा सकती है। यह प्रयोग हमारे कष्ट, बेचैनी और मूच्र्छा को बहुत कम कर देगा।  -

मेहनत


Wednesday, 20 Jul 2011 8:30:22 hrs IST
एक सौदागर व्यापार करने के मकसद से घर से निकला। उसने एक अपाहिज लोमड़ी देखी, जिसके हाथ-पैर नहीं थे, फिर भी तंदरूस्त। सौदागर ने सोचा, यह तो चलने-फिरने से भी मजबूर है, फिर यह खाती कहां से है? 

अचानक उसने देखा कि एक शेर, एक जंगली गाय का शिकार करके उसी तरफ आ रहा है। वह डर के मारे एक पेड़ पर चढ़ गया। शेर लोमड़ी के करीब बैठकर ही अपना शिकार खाने लगा और बचा-खुचा शिकार वहीं छोड़कर चला गया। लोमड़ी आहिस्ता-आहिस्ता खिसकते हुए बचे हुए शिकार की तरफ बढ़ी और बचे खुचे को खाकर अपना पेट भर लिया। सौदागर ने यह माजरा देखकर सोचा कि सर्वशक्तिमान ईश्वर जब इस अपाहिज लोमड़ी को भी बैठे-बिठाए खाना-खुराक देता है तो फिर मुझे घर से निकलकर दूर-दराज इस खाना-खुराक के इंतजाम के  लिए भटकने की क्या जरूरत है? मैं भी घर बैठता हूं। वह वापस चला आया।

कई दिन गुजर गए लेकिन आमदनी की कोई सूरत नजर नहीं आई। एक दिन घबराकर बोला-ऎ मेरे पालक अपाहिज लोमड़ी को तो खाना-खुराक दे और मुझे कुछ नहीं। 

आखिर ऎसा क्यों? उसे एक आवाज सुनाई दी, 'ऎ नादान हमने तुझको दो चीजें दिखाई थीं। एक मोहताज लोमड़ी जो दूसरों के बचे-खुचे पर नजर रखती है और एक शेर जो मेहनत करके खुद शिकार करता है। तूने मोहताज लोमड़ी बनने की तो कोशिश की, लेकिन बहादुर शेर बनने की कोशिश न की। शेर क्यों नहीं बनते ताकि खुद भी खाओ और बेसहारों को भी खिलाओ।' यह सुनकर सौदागर फिर सौदागरी को चल निकला।

हमदर्दी


Saturday, 30 Jul 2011 8:34:32 hrs IST
एक जापानी अपने मकान की मरम्मत के लिए उसकी दीवार को खोल रहा था। ज्यादातर जापानी घरों में लकड़ी की दीवारों  के बीच जगह होती है। जब वह लकड़ी की इस दीवार को उधेड़ रहा था तो उसने देखा कि दीवार में एक छिपकली फंसी हुई थी। छिपकली के एक पैर में कील ठुकी हुई थी। उसे छिपकली पर रहम आया। उसने इस मामले में उत्सुकता दिखाई।
अरे यह क्या! यह तो वही कील है जो काफी पहले मकान बनाते वक्त ठोकी गई थी।

यह क्या !! क्या यह छिपकली इसी हालत से दो चार है?!! यह नामुमकिन है। उसे हैरत हुई। यह छिपकली आखिर जिंदा कैसे है!!!  बिना एक कदम हिले-डुले जबकि इसके पैर में कील ठुकी है! उसने अपना काम रोक दिया और सोचा कि किस तरह की खुराक इसे अब तक मिल पाई। इस बीच एक दूसरी छिपकली ना जाने कहां से वहां आई जिसके मुंह में खुराक थी। अरे! यह दूसरी छिपकली इस फंसी हुई छिपकली को खिलाती रही। जरा गौर कीजिए। वह दूसरी छिपकली बिना थके और अपने साथी की उम्मीद छोड़े बिना लगातार उसे खिलाती रही।

आप अपने गिरेबां में झांकिए-क्या आप अपने जीवनसाथी के लिए ऎसी कोशिश कर सकते हैं? तुम अपनी मां के लिए, अपने पिता के लिए, अपने भाई-बहिनों के लिए या फिर अपने दोस्त के लिए ऎसा कर सकते हो? और फिक्र कीजिए अगर एक छोटा-सा जीव ऎसा कर सकता है तो वह जीव क्यों नहीं जिसको ईश्वर ने सबसे ज्यादा अक्लमंद बनाया है?

Friday 25 May 2012

अहंकार का शमन


Friday, 25 May 2012 12:51:07 hrs IST
एक संन्यासी घूमता हुआ राजा के महल से होकर गुजरा। राजा के निवेदन पर संन्यासी ने राजा को दर्शन दिए। राजा ने प्रार्थना की, 'महाराज! मेरी रानियां भी आपके दर्शन करना चाहती हैं, लेकिन रिवाज के मुताबिक वे रनिवास से बाहर नहीं आ सकतीं। आप मेरे महल के भीतर चलें।' संन्यासी ने यह निवेदन भी स्वीकार कर लिया। 

राजा ने परिकरों को संकेत किया और तत्काल महल के द्वार से लेकर अन्त:पुर तक कीमती मखमली कालीन बिछा दिए गए। उन पर इत्र और खुशबूदार गुलाबजल छिड़का गया। मार्ग के दोनों ओर आदमकद दर्पण लगा दिए गए। 

महल के बाहर खड़े संन्यासी ने अपने कमंडल से पैरों पर पानी उंडेला और कीचड़ सने पैरों से उन गलीचों के ऊपर चलकर महल के भीतर जाने लगा।

साथ चल रहे विद्वान दरबारी ने संन्यासी से कहा, 'महात्मन! इतने अच्छे और कीमती कालीन को कीचड़ सने पैरों से गंदा करना कोई अच्छी बात तो नहीं।' 

संन्यासी ने कहा, 'मार्ग में मखमली गलीचे बिछाकर राजा के द्वारा अपने वैभव का प्रदर्शन करना तो अच्छी बात होगी? मैं तो उसके घमंड को चूर कर रहा हूं।'

विद्वान ने कहा, 'लगता है आपकी तपस्या अभी परिपक्व नहीं हुई। क्या आप नहीं जानते कि अहंकार को अहंकार से नहीं तोड़ा जा सकता। खून से खून का प्रक्षालन नहीं किया जा सकता और नमक को नमक से नहीं खाया जा सकता।'

मूर्ख कौन?


Thursday, 24 May 2012 10:16:12 hrs IST
एक चरवाहे को कहीं से चमकीला पत्थर मिल गया। चमकीला पत्थर लेकर वह बाजार में गया। फुटपाथ पर बैठे दुकानदार ने वह पत्थर उससे आठ आने में खरीदना चाहा, परन्तु उसने उसे बेचा नहीं। आगे गया तो सब्जी बेचने वाले ने उसका मूल्य लगाया दो मूली। कपड़े की दुकान पर गया तो दुकानदार ने उसका दाम लगाया- थान भर कपड़ा। 

चरवाहे ने फिर भी नहीं बेचा, क्योंकि उसका मूल्य लगातार बढ़ता जा रहा था।
तभी एक व्यक्ति उसके पास आया और बोला, 'पत्थर बेचोगे?' 'बेचूंगा, सही दाम मिला तो?' 'दाम बोलो' 'हजार रूपए' 'दिन में सपने देखते हो चमकीला है, तो क्या हुआ।' कहकर वह व्यक्ति आगे बढ़ गया। वह जोहरी था। समझ गया कि चरवाहा पत्थर का मूल्य नहीं जानता। वह चला गया कि फिर आता हूं। उसके जाते ही एक दूसरा जोहरी आया। पत्थर को देखते ही उसकी आंखें खुल गई। दाम पूछा, तो चरवाहे ने बताया डेढ़ हजार रूपए। जोहरी ने डेढ़ हजार में हीरा खरीद लिया। 

अब पहले वाला जोहरी उसके पास आया और बोला, 'कहां है तुम्हारा पत्थर?' चरवाहे ने कहा, वह तो बेच दिया। 'कितने में?' 'डेढ़ हजार रूपए में।' जोहरी बोला, 'मूर्ख आदमी, वह हीरा था जो लाखों का था। तुमने कौड़ी के भाव बेच दिया। चरवाहा बोला, 'मूर्ख मैं नहीं, तुम हो। वह तो मुझे भेड़ चराते हुए मुफ्त में मिला था। मैंने उसे डेढ़ हजार में बेच दिया । लेकिन तुमने उसका मूल्य जानते हुए भी घाटे का सौदा किया। मूर्ख तुम हो या मैं।' जोहरी के पास अब कोई जवाब न था।

आकांक्षा रहित कर्म करें


Wednesday, 23 May 2012 9:07:19 hrs IST
बादशाह अकबर ने एक बार तानसेन से कहा, 'सुना है तुम्हारे गुरू तुमसे बहुत अच्छा गाते हैं। कभी उन्हें इस दरबार में लाओ। मैं उन्हें सुनना चाहता हूं।' अकबर को इतना मालूम था कि तानसेन के गुरू स्वामी हरिदासजी हैं, जो वृंदावन में रहते हैं। अकबर के मन में आता था कि जब तानसेन इतना अच्छा गाते हैं तो उनके गुरू कितना अच्छा गाते होंगे? हरिदासजी का गायन सुनने की अकबर के मन में प्रबल इच्छा हो गई।

तानसेन ने अकबर के प्रस्ताव पर कहा, जहांपनाह, मेरे गुरू कहीं आते-जाते नहीं, मैं उन्हें यहां ले आने में असमर्थ हूं। अकबर बोला, फिर वहीं महफिल सजवाओ, हम वहां चलेंगे। 

तानसेन ने कहा कि यह भी सम्भव नहीं है। वे किसी की फरमाइश पर नहीं गाते। अपनी मर्जी पर गाते हैं। कुछ क्षण चुप रहने के बाद अकबर ने कहा, फिर हम वहीं चलते हैं। एक दिन बादशाह और तानसेन बिना किसी को बताए हरिदासजी की कुटिया पर पहुंच गए। सुबह हरिदासजी मस्ती में गा रहे थे। अकबर सुध-बुध खोकर उनका गायन सुनता रहा। गायन खत्म होने पर अकबर की तंद्रा टूटी। अकबर अपने पड़ाव पर लौट आए। 

अकबर ने तानसेन से कहा, तुम्हारे गुरू के गायन के सामने तुम्हारा गायन कुछ भी नहीं है। तानसेन ने कहा, 'हुजूर, मैं वेतन के लिए गाता हूं, जबकि मेरे गुरू ईश्वर के लिए। मुझमें और उनमें अन्तर तो होगा ही।'
कहने का अर्थ यह है कि आकांक्षा रहित होकर किया गया कार्य ज्यादा प्रभावशाली होता है।

ऎसा भी प्रेम...

Wednesday, 16 May 2012 9:36:38 hrs IST
एक फकीर बहुत दिनों तक बादशाह के साथ रहा। बादशाह का बहुत प्रेम उस फकीर पर हो गया। प्रेम भी इतना कि बादशाह रात को भी उसे अपने कमरे में सुलाता। कोई भी काम होता, दोनों साथ-साथ ही करते।

एक दिन दोनों शिकार खेलने गए और रास्ता भटक गए। भूखे-प्यासे एक पेड़ के नीचे पहुंचे। पेड़ पर एक ही फल लगा था। बादशाह ने घोड़े पर चढ़कर फल को अपने हाथ से तोड़ा। बादशाह ने फल के छह टुकड़े किए और अपनी आदत के मुताबिक पहला टुकड़ा फकीर को दिया। 
फकीर ने टुकड़ा खाया और बोला, 'बहुत स्वादिष्ट! ऎसा फल कभी नहीं खाया। 

एक टुकड़ा और दे दें। दूसरा टुकड़ा भी फकीर को मिल गया। फकीर ने एक टुकड़ा और बादशाह से मांग लिया। इसी तरह फकीर ने पांच टुकड़े मांग कर खा लिए। जब फकीर ने आखिरी टुकड़ा मांगा, तो बादशाह ने कहा, 'यह सीमा से बाहर है। आखिर मैं भी तो भूखा हूं। मेरा तुम पर प्रेम है, पर तुम मुझसे प्रेम नहीं करते।'

और सम्राट ने फल का टुकड़ा मुंह में रख लिया। मुंह में रखते ही राजा ने उसे थूक दिया, क्योंकि वह कड़वा था। राजा बोला, 'तुम पागल तो नहीं, इतना कड़वा फल कैसे खा गए?' उस फकीर का उत्तर था, 'जिन हाथों से बहुत मीठे फल खाने को मिले, एक कड़वे फल की शिकायत कैसे करूं? सब टुकड़े इसलिए लेता गया ताकि आपको पता न चले। ऎसा व्यक्ति जो होगा, वही संतुष्ट हो सकता है। संतोष् का भी अपना गणित है। अपनी कैमिस्ट्री है।