Monday 30 July 2012

वेश की लाज

Wednesday, 25 Jul 2012 2:00:19 hrs IST

राजा भोज के दरबार में एक बहुरूपिया पहुंचा और दक्षिणा मांगी। राजा ने कहा, 'कलाकार को उसकी कला के प्रदर्शन पर पुरस्कार या पारितोषिक तो दिया जा सकता है, लेकिन दक्षिणा नहीं।' स्वांग दिखाने के लिए तीन दिन का समय मांग कर वह बहुरूपिया चला गया।
दूसरे दिन एक पहाड़ी पर एक जटाजूटधारी संन्यासी को देखकर चरवाहों का समूह एकत्रित हो गया। संन्यासी अविचल समाधिस्थ रहे। भिक्षा ग्रहण करने का भी उन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। तपस्वी की चर्चा सुन राजधानी के धनी- मानी लोग उस पहाड़ी पर उमड़ पड़े। पर संन्यासी की समाधि नहीं टूटी। राजा भोज का प्रधानमंत्री भी भेंट लेकर पहुंचा और आशीर्वाद की कामना की। किन्तु सब बेकार। राजा स्वयं चलकर उस तपस्वी के पास पहुंचे, किन्तु तपस्वी की समाधि अविचल रही। निराश होकर राजा भी लौट आए। 
इसके अगले दिन बहुरूपिया राजा के दरबार में उपस्थित हुआ और तपस्वी के स्वांग के बारे में बताया। बहुरूपिया ने पुरस्कार की मांग की। राजा भोज विस्मित रह गए उसकी कला पर। फिर बोले, 'मूर्ख मैं खुद तेरे पास गया। रत्न भेंट किए, पर तू ने कुछ न लिया और अब पुरस्कार मांग रहा है। तब संन्यासी ने कहा, 'अन्नदाता, उस समय दुनिया के सारे वैभव तुच्छ थे। तब मुझे संन्यासी के वेश की लाज रखनी थी। लेकिन अब तो पेट की आग और कला का परिश्रम अपना पुरस्कार चाहता है। अब सवाल यह है कि जो सचमुच संन्यास धारण किए है, वे पैसों पर अवलम्बित हो जाएं तो उन्हें क्या कहा जाए?

Thursday 19 July 2012

कुलीनता का बोध

Wednesday, 18 Jul 2012 2:57:33 hrs IST
पुराने जमाने की बात है। एक प्रज्ञाचक्षु लाठी के सहारे जा रहा था। जिसके आंख नहीं होती, उसे शिष्ट भाषा में 'सूरदास' कहते हैं। सामने से कई आदमियों की एक टोली आ रही थी। प्रज्ञाचक्षु के पास वह टोली आई, तो उसमें से एक भाई ने कहा, 'अंधा बाबा राम-राम।' प्रज्ञाचक्षु ने कहा, 'गोला भाई, राम-राम।'उसमें से एक ठाकुर साहब ने सामने आकर कहा, 'सूरदासजी, राम-राम।' सूरदास ने कहा, 'हां, ठाकरां, राम-राम।'तभी किसी ने कहा, 'सूरदासजी, आपने 'गोला' और 'ठाकुर' की पहचान कैसे कर ली? आपके तो नेत्र ही नहीं हैं? ये कैसे सम्भव हो सका है?'

सूरदास ने कहा, 'बोली के कारण मैंने पहचान लिया। जिसने 'अंधा' कहा, वह निश्चित ही कोई निम्न जाति का ही व्यक्ति हो सकता है। जो भी शालीन, शिष्ट भाषा का प्रयोग करेगा, वह अव्यक्त रूप से अपनी कुलीनता का भी बोध करा देगा। सूरदास का सम्बोधन देने वाला कोई ठाकुर ही हो सकता है।'

हम वाचिक अहिंसा का विकास करें, क्योंकि परस्पर के सामुदायिक जीवन के लिए वह बहुत जरूरी है। स्वयं अपने विकास के लिए तो जरूरी है ही। ऎसा लगता है कि अभी भी भारतीय मानस में वाचिक अहिंसा का समुचित विकास नहीं हुआ है। बहुत से लोग यह जानते ही नहीं हैं कि वचन से भी हिंसा हो सकती है। बहुत से लोगों की भाषा आज भी लट्ठमार है। अहंकार, आवेश, उत्तेजना, स्वयं को उच्च और दूसरों को हीन मानने की प्रवृत्ति वाणी में मिठास नहीं रहने देती है।

Thursday 12 July 2012

खुद की हैसियत देखें

Thursday, 12 Jul 2012 2:27:57 hrs IST

एक जनजाति का आदमी शहर में आया। बहुत दिनों से उसने शहर के बारे में सुन रखा था, किंतु शहर देखा नहीं था। एक दुकान में वह गया, जहां बड़ी-बड़ी पेटियां रखी थीं। उसने उन पेटियों के बारे में पूछा। उसे बताया गया कि दिनभर कपड़े पहनो और रात को उन्हें उतार कर इन पेटियों में सुरक्षित रख दो। अपनी जिज्ञासा शांत कर वह जाने लगा तो दुकानदार ने कहा, 'इतनी देर से तुम इन पेटियों को देख रहे हो। इनके बारे में हर तरह की जानकारी भी तुमने ले ली, अब ऎसी क्या बात हो गई कि तुमने इन्हें लेने का विचार त्याग दिया?'
 
देहाती ने कहा, 'इनके बारे में जानने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि ये मेरे काम की नहीं है। मैं इनका क्या करूंगा? आपने कहा कि कपड़े रखने की चीज है। मेरे पास मात्र दो ही कपड़े हैं। इन्हें खोलकर पेटी में रख दूं तो पहनूंगा क्या?' 

बड़े मर्म की बात है। कोरी पेटी को ही मत देखो, अपनी हैसियत को भी देखो। कपड़े पर भी विचार करो। पास में कपड़ा है तो पेटी का उपयोग है। पास में कपड़ा नहीं तो खाली पेटी का कोई उपयोग नहीं है। 

कहने का अर्थ यह कि वे आदमी दुखी बनते हैं, जो केवल वर्तमान को देखते हैं, भविष्य को नहीं देखते, परिणाम को नहीं देखते। वर्तमान को देखते हैं, किंतु परिणाम को नहीं देखते कि इसका परिणाम क्या होगा? ऎसे आदमी दुखी बनते हैं। पेटी तो बहुत बड़ी खरीद ली, किंतु पास में कपड़ा है या नहीं, इस पर भी तो विचार कर लेना चाहिए। मकान बहुत बड़ा बना लिया, किंतु रहने वाला कोई है या नहीं?

Tuesday 10 July 2012

अहंकार भी काम का

Tuesday, 10 Jul 2012 3:29:47 hrs IST

महाराणा प्रताप ने जंगलों में अपार कष्टों को झेलते हुए एक बार कमजोरी का अनुभव किया। वन में बच्चों के लिए बनाई गई घास की रोटी भी जब कोई जानवर उठा ले गया तो मानसिक रूप से वे टूट गए। उस समय उन्होंने स्वयं को बहुत दयनीय स्थिति में पाकर अकबर से संघि कर लेनी चाही। उनके एक भक्त-चारण को इस बात का पता चला तो उसने महाराणा को एक दोहा लिखकर भेजा। 

उसमें था कि इस धरती पर हिन्दू कुलरक्षक एक आप ही थे, जो मुगल-बादशाह से लोहा लेते रहे। किसी भी स्थिति में हार नहीं मानी, मस्तक गर्व से सदा ऊंचा रखा। वह मस्तक अब अकबर के सामने झुकने जा रहा है, तो हम स्वाभिमानी मेवाड़ी किसकी शरण लें? आपका निर्णय हमें इसी तरह आश्चर्यचकित करता है, जैसे सूर्य को पूरब की बजाय पश्चिम में उगते देखने पर होता है।

कहते हैं कि उस एक दोहे को पढ़कर महाराणा का स्वाभिमान पुन: जागृत हो गया। संघिपत्र को फाड़कर फेंक दिया और अपनी शक्ति को फिर से संगठित कर मेवाड़ के शेष्ा भाग को अकबर के अघिकार से मुक्त कराने के प्रयत्न में जुट गए। चारण को धन्यवाद देते हुए लिखकर भेजा कि सूरज जिस दिशा में उगता है , उसी दिशा में उगेगा, तुम चिंता मत करो। 

अहंकार को जगाना कभी-कभी व्यावहारिक जगत में बड़े काम का होता है। लोग किसी प्रसंग में कह देते हैं, 'इतने बड़े होकर जब आप ही ऎसा काम करेंगे तो किसी अन्य से क्या आशा की जाए?' इस बात से आदमी संभल जाता है और कभी अवांछित कार्य नहीं करता।

परप्रतिष्ठित अहंकार

Monday, 09 Jul 2012 2:27:36 hrs IST

एक है परप्रतिष्ठित अहंकार। अर्थात दूसरा कोई व्यक्ति अगर ऎसी बात कह देता है, जिससे अहंकार जाग्रत हो जाता है तो उसे परप्रतिष्ठित अहंकार कहा जाता है। बाजार से लौटकर आई पत्नी पति को अपने द्वारा खरीदी गई साडियां दिखा रही थी। दो हजार और ढाई हजार रूपए की कीमती साडियां देखकर पति को किंचित गुस्सा आया। गुस्से में उसने केवल इतना ही कहा, इतनी महंगी साडियां खरीदने की क्या जरूरत थी। यह महंगाई के जमाने में पैसे का अपव्यय है, बर्बादी है।

पत्नी बोली- 'मैं आपकी बात से सहमत हूं कि इतनी कीमती साडियां मुझे नहीं खरीदनी चाहिए। लेकिन पड़ोस में गुप्ताजी की पत्नी दो हजार रूपए की साडियां खरीदकर लाई और मोहल्ले भर में दिखाती रही। तब मेरे सामने आपकी प्रतिष्ठा का सवाल आ गया।' पत्नी की बात सुनकर पति का गुस्सा एकदम काफूर हो गया। उसके मन में तत्काल दूसरी भावनाएं उत्पन्न हो गईं। मेरी पत्नी मेरी प्रतिष्ठा का कितना ध्यान रखती है। पति के मन में अहंकार जाग गया। कहने का अर्थ यह कि अहंकार गुस्से का शमन भी करता है। एक नियम है कि मनुष्य की दोनों प्रकृतियां साथ-साथ काम नहीं करतीं। 

जब क्रोध आता है तो उस समय अहंकार दबा रहेगा। जब अहंकार जाग्रत हो गया तो फिर क्रोध दब जाएगा। दोनों स्थितियां साथ-साथ नहीं चलतीं। अहंकार को जाग्रत कर काम कराना भी एक कला है। अहंकार की स्थिति में मनुष्य सब कर देता है। परप्रतिष्ठित अहंकार भी यह है। यह अपने आप नहीं आया, दूसरे से प्रशंसा सुनकर आ गया।

Friday 6 July 2012

आकांक्षाएं असीम

Tuesday, 03 Jul 2012 2:07:00 hrs IST

एक धनी आदमी अपनी दुकान पर बैठा था। इतने में चार-पांच व्यक्ति उसकी दुकान के सामने कार से उतरे। उनके व्यक्तित्व से लग रहा था कि संभ्रान्त घरों के लोग हैं। सेठ ने उनका स्वागत किया और आने का आशय पूछा। उन लोगों में से एक ने कहा, 'हमने सुना है कि आपके पुत्र ने अभी-अभी व्यापार प्रबंधन का कोर्स किया है। मेरे भी एक ही लड़की है। वह उच्च शिक्षित है। हम चाहते हैं कि विवाह के लिए अपनी स्वीकृति प्रदान करें। 

सेठ ने कहा, आपका प्रस्ताव सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई। किन्तु अभी मैं 'हां' कहने की स्थिति में नहीं हूं। वजह यह है कि लड़का अरूचि दिखा रहा है। पहले भी लोग आए थे और जाते-जाते पांच करोड़ देने की बात कह गए। लड़का अभी दो नई इंडस्ट्री शुरू करना चाहता है। ऎसी स्थिति में मैं क्या करूं?'

आगन्तुकों से सेठ ने पांच करोड़ की बात कहकर यह सूचना दे दी कि इससे ज्यादा हो तो बात की जा सकती है। सेठ ने बही खाते भी सामने रख दिए, जिसमें करोड़ों का टर्न ओवर था। 

सेठ ने बही खाते सामने रखे ही थे कि कई लोग जीप से उतरे और उन्होंने सेठ को यह कहते हुए घेर लिया कि हम विवाह के लिए नहीं आए हैं। हम तो आयकर वाले हैं। सेठजी अपने जाल में खुद ही फंस चुके थे।

कोरी पूजा का अर्थ नहीं

Thursday, 05 Jul 2012 3:34:18 hrs IST

एक विद्यार्थी अपने काम में बहुत सफल हो रहा था। दूसरे विद्यार्थियों ने उससे पूछा कि तुम्हारी सफलता का राज क्या है? उसने कहा, 'प्रात:काल मैं सरस्वती की पूजा करता हूं। उनका स्तोत्र बोलता हूं, इस कारण मैं सफल हो रहा हूं।' एक विद्यार्थी ने इस बात को सफलता का गुर मानकर उसका अनुकरण करने का निश्चय किया। सरस्वती की प्रतिमा ले आया। विघिपूर्वक उसके सामने स्तोत्र बोलना शुरू कर दिया। जब परीक्षा का परिणाम आया तो देखा वह अनुत्तीर्ण था। वह छात्र उसके पास गया, जिसने सरस्वती की पूजा को अपनी सफलता का कारण बताया था। बोला, 'मैंने तुम्हारा अनुकरण किया, फिर भी मुझे सफलता नहीं मिली, ऎसा क्यों?' उसने कहा, 'ऎसा तो नहीं होना चाहिए। अच्छा बताओ, पूजा के साथ तुमने पढ़ाई तो मन लगाकर की या नहीं?' 'वह तो नहीं की। जब मन लगाकर पढ़ना ही है, तो फिर पूजा-पाठ क्यों करता?'
'यही तुम्हारी सबसे बड़ी भूल रही। अच्छा जो हुआ, सो हुआ, अब मैं तुम्हें एक श्लोक सुनाता हूं, सुनो—
उद्यम: साहसं धैर्य, बुद्धि: शक्ति: पराक्रम:।
षडेते यत्र विद्यन्ते, तत्र देव: सहायकम्।।
देवता सहायता कहां करता है? जहां उद्यम है, साहस है, धैर्य है, बुद्धि है, शक्ति है और पराक्रम यानी पुरूषार्थ है। ये छह बातें हैं, वहां देवता भी सहायक बनते हैं। जहां यह सब नहीं, कोरी पूजा है, वहां कोई देवता पास भी नहीं फटकता। मेरी सहायता देवता करते हैं, क्योंकि मैं इन छह में विश्वास करता हूं। हमें ऎसा काम करना चाहिए, जो वास्तव में ज्ञान और आचार की दूरी को मिटा सके।