Tuesday, 10 Jul 2012 3:29:47 hrs IST
महाराणा प्रताप ने जंगलों में अपार कष्टों को झेलते हुए एक बार कमजोरी का अनुभव किया। वन में बच्चों के लिए बनाई गई घास की रोटी भी जब कोई जानवर उठा ले गया तो मानसिक रूप से वे टूट गए। उस समय उन्होंने स्वयं को बहुत दयनीय स्थिति में पाकर अकबर से संघि कर लेनी चाही। उनके एक भक्त-चारण को इस बात का पता चला तो उसने महाराणा को एक दोहा लिखकर भेजा।
उसमें था कि इस धरती पर हिन्दू कुलरक्षक एक आप ही थे, जो मुगल-बादशाह से
लोहा लेते रहे। किसी भी स्थिति में हार नहीं मानी, मस्तक गर्व से सदा ऊंचा
रखा। वह मस्तक अब अकबर के सामने झुकने जा रहा है, तो हम स्वाभिमानी
मेवाड़ी किसकी शरण लें? आपका निर्णय हमें इसी तरह आश्चर्यचकित करता है,
जैसे सूर्य को पूरब की बजाय पश्चिम में उगते देखने पर होता है।
कहते हैं कि उस एक दोहे को पढ़कर महाराणा का स्वाभिमान पुन: जागृत हो
गया। संघिपत्र को फाड़कर फेंक दिया और अपनी शक्ति को फिर से संगठित कर
मेवाड़ के शेष्ा भाग को अकबर के अघिकार से मुक्त कराने के प्रयत्न में जुट
गए। चारण को धन्यवाद देते हुए लिखकर भेजा कि सूरज जिस दिशा में उगता है ,
उसी दिशा में उगेगा, तुम चिंता मत करो।
अहंकार को जगाना कभी-कभी व्यावहारिक जगत में बड़े काम का होता है। लोग
किसी प्रसंग में कह देते हैं, 'इतने बड़े होकर जब आप ही ऎसा काम करेंगे तो
किसी अन्य से क्या आशा की जाए?' इस बात से आदमी संभल जाता है और कभी
अवांछित कार्य नहीं करता।
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