Wednesday 20 June 2012

अहंकार न करें


एक सेठ ने सोचा कि मैं मेरी मां की ऎसी सेवा करूं जो सबको याद रहे। मेरा नाम सारी दुनिया में फैल जाए। यह सोचकर उसने एक सोने की चौकी बनाई। बहुत बड़ी चौकी। एक दिन पूजा का समय रखा। पंडितजी को बुला लिया। सारा कार्यक्रम विधिवत चला और जब कार्य संपन्न होने को आया तो सेठ उठा और बोला कि 'आज मैंने अपनी मां की अर्चना की है। अब अर्चना संपन्न हो रही है और मैं एक घोष्णा करने जा रहा हूं कि जिस चौकी पर मेरी मां बैठी है, वह चौकी मैं पंडितजी को देता हूं।

सेठ ने चौकी पंडितजी को दे दी, पर आगे बोले (आदमी का अहं बोला है) 'पंडित जी! इतना बड़ा दानी कोई मिला आपको दुनिया में आज तक।' सारी बात बदल गई। सारे लोग देखते रह गए सेठ की ओर। पंडितजी भी बड़े स्वाभिमानी थे, त्यागी थे। अगर लोभी होते तो सह लेते। वह खडे हुए। उन्होंने अपनी जेब से एक रूपया निकाला और चौकी पर  रखकर बोले— 'सेठ साहब! इस चौकी पर एक रूपया अघिक रखकर आपको लौटा रहा हूं। मैं आपसे पूछना चाहता हूं, क्या इससे बड़ा त्यागी आपको कोई मिला?'

आदमी को करणीय का अहंकार भी बड़ा सताता है। जब ज्ञाता-द्रष्टा की चेतना जाग जाती है तो दोनों स्थितियां निष्पन्न होती हैं। वह अकरणीय काम तो करता ही नहीं और करणीय का अहंकार भी नहीं करता। यह दो प्रकार की चेतना निष्पत्ति में आती है। कहने का आशय यह कि कर्तव्य करें तो उसका अहंकार करें।


Sunday 17 June 2012

सुधारने की कला


पूर्व राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन एक प्रख्यात शिक्षाशास्त्री ही नहीं, एक बेहतरीन इंसान भी थे। उनके जीवन का एक प्रसंग है—परिवार में एक पुराना नौकर था। बहुत ईमानदार और विश्वस्त, लेकिन एक बड़ा अवगुण उसमें यह था कि वह आलसी  था। सवेरे जल्दी उठ नहीं पाता था। नौकर अगर आलसी हो तो मालिक की कठिनाइयां बढ़ ही जाती हैं। वे चाहते तो एक मिनट में उसकी छुट्टी कर सकते थे। बड़े आदमियों को नौकर-चाकरों की क्या कमी? 

बड़े लोग अपने अधीनस्थ की गलती पर उन्हें बर्खास्त कर देते हैं। लेकिन डॉक्टर जाकिर हुसैन ने ऎसा नहीं किया। बिगड़े को बनाने की कला वे जानते थे। आखिर शिक्षाशास्त्री थे। एक दिन सवेरे वे चाय का कप-प्लेट लिए सोए हुए नौकर के पास गए और धीरे से बोले— 'मालिक उठो।'

एक मंद और मीठी आवाज नौकर के कान में पड़ी तो वह चौंक पड़ा कि मालिक कहकर यह कौन मुझे संबोधित कर रहा है? तानी हुई चादर से मुंह निकालकर देखा तो देखा कि सामने डॉक्टर साहब चाय की प्याली लिए खड़े हैं। एक झटके के साथ वह उठकर बैठ गया। उस समय शर्म और संकोच से जैसे वह गड़ गया। 

सिर झुकाए हुए नौकर बोला— 'मुझे क्षमा करें। आज के बाद मैं कभी आपको शिकायत का मौका नहीं दूंगा।' और सचमुच जब तक वह डॉक्टर साहब के यहां रहा, अप्रमादी बनकर रहा। उसने फिर कभी शिकायत का मौका नहीं दिया।

Sunday 10 June 2012

मन से भय निकालें

Friday, 04 May 2012 11:02:53 hrs IST (Rajasthan Patrika)
परतंत्रता दु:ख है। स्वतंत्रता सुख है, क्योंकि वहां कोई भय नहीं होता। परतंत्रता में भय होता है। आदमी डरता है कि कोई गलती होने पर दंड मिलेगा। दंड का यह भय ही दुख का कारण बनता है। कन्फ्यूशियस की एक कहानी है—

एक पिंजरे में बाज, बिल्ली और चूहा तीनों को बंद कर दिया गया और उसी पिंजरे में मांस का एक बड़ा टुकड़ा रख दिया गया। तीनों प्राणी उस पिंजरे में बंद हैं। तीनों भूखे हैं, किंतु तीनों ही मांस को खा नहीं रहे हैं। सबके साथ कन्फ्यूशियस भी इस दृश्य को देख रहे हैं। वह ज्ञानी थे, इसलिए लोगों ने उनसे पूछा— 

'ये प्राणी सामने भोजन होने पर भी उसका उपभोग क्यों नहीं कर रहे हैं?' एक-दूसरे को देख क्यों रहे हैं? कन्फ्यूशियस ने कहा— 'चूहा बिल्ली से डर रहा है। बिल्ली बाज से डर रही है, इसलिए दोनों मांस की ओर ललचाई दृष्टि से देख रहे हैं, किंतु उसे खा नहीं रहे हैं।'
'लेकिन बाज क्यों नहीं खा रहा है?'

'बाज इसलिए नहीं खा रहा है, क्योंकि वह असमंजस में है। वह यह सोच रहा है कि चूहे को खाऊं या बिल्ली को खाऊं? इसी ऊहापोह में वह कोई निर्णय नहीं ले पा रहा है। ये तीनों ही भूख से मर जाएंगे, किंतु सामने रखे आहार का उपभोग नहीं कर सकेंगे।

भय के कारण आदमी सामने रखे आहार को भी भोग नहीं सकता। अभय सुख का सबसे बड़ा कारण है। अहिंसा का सबसे पहला सूत्र है अभय।

Thursday 7 June 2012

अहंकार से दूर रहें

Monday, 04 Jun 2012 9:18:52 hrs IST
एक मूर्तिकार सजीव मूर्तियां बनाने में सिद्धहस्त था। उसकी बनाई मूर्तियों को देखकर ऎसा लगता था कि वे अब तुरन्त ही बोल पड़ेंगी। इतना बड़ा शिल्पकार होने के बावजूद उसमें एक दोष्ा यह था कि वह अहंकारी था। अपनी कला पर उसे बहुत घमण्ड था।
जब उसका आखिरी समय आने लगा, तो उसने सोचा कि यमदूत को तो आना ही है। उसने यमदूतों को भ्रमित करने के लिए अपनी जैसी दस मूर्तियां बना डालीं। अन्तिम समय में उन मूर्तियों के बीच जाकर बैठ गया।

यमदूत आए। एक जैसे इतने आदमी को देखकर वह भ्रमित हो गए कि किसको ले जाना है। सही आदमी को न ले जाकर गलत आदमी को ले जाते हैं तो विघि का विधान टूटेगा और मूर्तियों को तोड़ने की उन्हें आज्ञा नहीं मिली हुई थी। अचानक एक यमदूत को उसके एक बड़े दुर्गुण 'अहंकार' की याद आ गई। वह जानता था कि 'अहंकार' पर पड़ी चोट को इंसान बर्दाश्त नहीं कर सकता। 

उसने कहा, 'काश, इन मूर्तियों को बनाने वाला मुझे मिलता तो उसे बताता कि एक गलती कहां रह गई है। एक छोटी-सी चूक मूर्तिकार की मेहनत पर पानी फेर रही है। इतना सुनना था कि मूर्तिकार का अहं जाग उठा। वह तुरन्त बोल उठा, 'कैसी त्रुटि। कहां रह गई गलती।' उसके मुंह से इतना ही निकलना था कि यमदूत ने उसकी चोटी पकड़ ली। और बोला, यही है त्रुटि। तुम अपने अहं पर काबू नहीं रख पाए। तुम्हें मालूम होना चाहिए था कि बेजान मूर्तियां बोला नहीं करती।

Friday 1 June 2012

सीमाओं में न बंधें


Friday, 01 Jun 2012 10:04:12 hrs IST
एक राजा ने किसी योग्य गुरू की तलाश शुरू की। राज्य में घोषणा  करवा दी, जिसका आश्रम सबसे बड़ा होगा, उसे मैं अपना गुरू स्वीकार करूंगा। घोषणा  होने की देर थी। जगह-जगह से संवाद आने लगे कि मेरा आश्रम बहुत बड़ा है। सब अपने-अपने आश्रम का नक्शा लेकर राजमहल के दरवाजे पर इकटे होने लगे। 


राजा ने धैर्य से सबकी बात सुननी शुरू की। अंत में एक तेजस्वी साधु की बारी आई। राजा ने उससे पूंछा, 'आपने तो बताया ही नहीं। आपका आश्रम कितना बड़ा है?' संन्यासी ने कहा, 'राजन्! मैं यहां कुछ नहीं बताऊंगा। आप मेरे साथ जंगल में चलें, वहां मेरा आश्रम स्वयं देख लें।'
राजा उस साधु के साथ जंगल में गया। वहां जाकर वह साधु आसन बिछाकर एक वृक्ष के नीचे बैठ गया। राजा ने कहा, 'महाराज! कहां है आपका आश्रम?' 

साधु ने कहा, 'राजन्! नीचे धरती और ऊपर आकाश और इसके बीच में सारा चराचर जगत मेरा आश्रम है। आपके पास कोई फीता हो तो इसे माप लें।' राजा ने तत्काल उसे अपना गुरू मान लिया। 

कहने का अर्थ यह कि चाहे धर्म की सीमा हो या आश्रम की, जो सीमा में बंध जाता है, उसका दृष्टिकोण और चिंतन भी सीमित रह जाता है। यह सीमा कोई बहुत अच्छी बात नहीं होती। असीम की बात होनी चाहिए, मोक्ष और परमात्मा की बात होनी चाहिए। आज सीमाएं भी छोटी होती जा रही हैं। विस्तार नहीं संकुचन हो रहा है।