एक सेठ ने सोचा कि मैं मेरी मां की ऎसी सेवा करूं जो सबको याद रहे। मेरा नाम सारी दुनिया में फैल जाए। यह सोचकर उसने एक सोने की चौकी बनाई। बहुत बड़ी चौकी। एक दिन पूजा का समय रखा। पंडितजी को बुला लिया। सारा कार्यक्रम विधिवत चला और जब कार्य संपन्न होने को आया तो सेठ उठा और बोला कि 'आज मैंने अपनी मां की अर्चना की है। अब अर्चना संपन्न हो रही है और मैं एक घोष्णा करने जा रहा हूं कि जिस चौकी पर मेरी मां बैठी है, वह चौकी मैं पंडितजी को देता हूं।'
सेठ ने चौकी पंडितजी को दे दी, पर आगे बोले (आदमी का अहं बोला है) 'पंडित जी! इतना बड़ा दानी कोई मिला आपको दुनिया में आज तक।' सारी बात बदल गई। सारे लोग देखते रह गए सेठ की ओर। पंडितजी भी बड़े स्वाभिमानी थे, त्यागी थे। अगर लोभी होते तो सह लेते। वह खडे हुए। उन्होंने अपनी जेब से एक रूपया निकाला और चौकी पर रखकर बोले— 'सेठ साहब! इस चौकी पर एक रूपया अघिक रखकर आपको लौटा रहा हूं। मैं आपसे पूछना चाहता हूं, क्या इससे बड़ा त्यागी आपको कोई मिला?'
आदमी को करणीय का अहंकार भी बड़ा सताता है। जब ज्ञाता-द्रष्टा की चेतना जाग जाती है तो दोनों स्थितियां निष्पन्न होती हैं। वह अकरणीय काम तो करता ही नहीं और करणीय का अहंकार भी नहीं करता। यह दो प्रकार की चेतना निष्पत्ति में आती है। कहने का आशय यह कि कर्तव्य करें तो उसका अहंकार न करें।