Monday 27 May 2013

प्रभु, तूने सही समय पर मुझे थाम लिया


एक नगर मे रहने वाले एक पंडित जी की ख्यातिदूर दूर तक थी पास ही के गाँव मे स्थित मंदिर के पुजारी का आकस्मिक निधन होने की वजह से उन्हें वहाँ का पुजारी नियुक्त किया गया था...
एक बार वह अपने गंतव्य की और जानेके लिए बस मे चढ़े उन्होंने कंडक्टर को किराए के रुपये दिए और सीट पर जाकर बैठ गए
कंडक्टर ने जब किराया काटकर रुपये वापस दिए तो पंडित जी ने पाया की कंडक्टर ने दस रुपये ज्यादा उन्हें दे दिए है।
पंडित जी ने सोचा कि थोड़ी देर बाद कंडक्टर को रुपये वापस कर दूँगा
कुछ देर बाद मन मे विचार आया की बेवजह दस रुपये जैसी मामूली रकम को लेकर परेशान हो रहे है आखिर ये बस कंपनी वाले भी तो लाखों कमाते है बेहतर है इन रूपयो को भगवान की भेंट समझकर अपने पास ही रख लिया जाए वह इनका सदुपयोग ही करेंगे।
मन मे चल रहे विचार के बीच उनका गंतव्य स्थल गया बस मे उतरते ही उनके कदम अचानक ठिठके उन्होंने जेब मे हाथ डाला और दस का नोट निकाल कर कंडक्टर को देते हुए कहा भाई तुमने मुझे किराए के रुपये काटने के बाद भी दस रुपये ज्यादा दे दिए थे।
कंडक्टर मुस्कराते हुए बोला क्या आप ही गाँव के मंदिर के नए पुजारी हो?
पंडित जी को हामी भरने पर कंडक्टर बोला मेरे मन मे कई दिनों से आपके प्रवचन सुनने की इच्छा है आपको बस मे देखातो ख्याल आया कि चलो देखते है कि मैं ज्यादा पैसे लौटाऊँ तो आप क्या करते हो, अब मुझे पता चल गया की आपके प्रवचन जैसा ही आपका आचरण है जिससे सभी को सिख लेनी चाहिए।
ये बोलकर कंडक्टर ने गाड़ी आगे बड़ा दी

पंडित जी बस से उतरकर पसीना-पसीना थे उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर भगवान से कहा है प्रभु तेरा लाख-लाख शुक्र है जो तूने मुझे बचा लिया मैने तो दस रुपये के लालच मे तेरी शिक्षाओ की बोली लगा दी थी पर तूने सही समय पर मुझे थाम लिया....!

एक रहस्य जो आपका जीवन बदल सकता है

एक हीरा व्यापारी था जो हीरे का बहुत बड़ा विशेषज्ञ माना जाता था किन्तु किसी गंभीर बीमारी के चलते अल्प आयु में ही उसकी मृत्युहो गयी अपने पीछे वह अपनी पत्नी और बेटा छोड़ गया
जब बेटा बड़ा हुआ तो उसकी माँ ने कहा, “बेटा , मरने से पहले तुम्हारे पिताजी ये पत्थर छोड़ गए थे, तुम इसे लेकर बाज़ार जाओ और इसकी कीमतका पता लगाओ | लेकिन ध्यान रहे कि तुम्हे केवल कीमत पता करनी है, इसे बेचना नहीं है |”

युवक पत्थर लेकर निकला, सबसे पहले उसे एक सब्जी बेचने वाली महिला मिली
अम्मा, तुम इस पत्थर के बदले मुझे क्या दे सकती हो ?”, युवक ने पूछा |
देना ही है तो दो गाजरों के बदले मुझे ये दे दो | तौलने के काम आएगा |”- सब्जी वाली बोली
युवक आगे बढ़ गया इस बार वो एक दुकानदार के पास गया और उससे पत्थर की कीमत जानना चाही
दुकानदार बोला, ” इसके बदले मैं अधिक से अधिक 500 रूपये दे सकता हूँ, देना हो तो दो नहीं तो आगे बढ़ जाओ” |

युवक इस बार एक सुनार के पास गया, सुनार ने पत्थर के बदले 20 हज़ार देने की बात की
फिर वह हीरे की एक प्रतिष्ठित दुकान पर गया वहां उसे पत्थर के बदले 1 लाख रूपये का प्रस्ताव मिला
और अंत में युवक शहर के सबसेबड़े हीरा विशेषज्ञ के पास पहुंचा और बोला,” श्रीमान , कृपया इस पत्थर की कीमत बताने का कष्ट करें” |

विशेषज्ञ ने ध्यान से पत्थर का निरीक्षण किया और आश्चर्य से युवक की तरफ देखते हुए बोला, ”यह तो एक अमूल्य हीरा है | करोड़ों रूपये देकर भी ऐसा हीरा मिलना मुश्किल है” |
यदि हम गहराई से सोचें तो ऐसा ही मूल्यवान हमारा मानव जीवन भी है | यह अलग बात है कि हम में से बहुत से लोग इसकी कीमत नहीं जानते और सब्जी बेचने वाली महिला की तरह इसे मामूली समझ तुच्छ कामो में लगा देते हैं


आइये हम प्रार्थना करें कि परमेश्वर सभी को इस मूल्यवान जीवन को समझने की सद्बुद्धि दे और हम हीरे के विशेषज्ञ की तरह इस जीवन का मूल्य आंक सकें

Monday 8 April 2013

साधु का जीवन

सबकी अपनी-अपनी महत्वाकांक्षा है। शिष्य बनकर रहने में आदमी असुविधा का अनुभव करता है। 

एक संन्यासी कुटीर बनाकर रहता था। अकेले रहने के कई फायदे हैं, तो कई तरह की कठिनाइयां भी हैं। भिक्षा मांगकर लाना, साफ-सफाई, पानी की व्यवस्था, झोंपड़े की सार-संभाल— सब कुछ स्वयं करना पड़ता। मन में भावना रहती कि कोई चेला मिल जाए तो काम में मदद करे। 

एक दिन कहीं से घूमता-फिरता एक लड़का बाबा की कुटिया में पहुंचा। बाबा ने स्नेह से उससे बात की। मीठा गुड़ दिया, ठंडा पानी पिलाया और कहा, 'दुनिया बड़ी स्वार्थी है। क्या रखा है घर-गृहस्थी में? छोड़ो सब जंजाल और मेरे पास आ जाओ। मैं तुम्हें अपना चेला बना लूंगा।'


बाबा की बात लड़के को अच्छी लगी, लेकिन चेला का मतलब वह नहीं जानता था। पूछा, 'बाबा! यह चेला क्या होता है?'

बाबा ने कहा, 'यह भी तुम नहीं जानते, भोले हो। एक होता है गुरू जो आदेश देता है और एक होता है चेला, जो गुरू के आदेश को शिरोधार्य कर हुक्म बजाता है।'

लड़के ने कहा, 'बाबा! मुझे सोचने का अवसर दें।' बाबा ने समझा काम बन गया। लड़का चेला बनना मंजूर कर लेगा। 

लड़के ने दो क्षण पता नहीं क्या सोचा, फिर बोला, 'बाबा, मैंने अच्छी तरह से विचार कर लिया। गुरू बनाना चाहो तो मैं तैयार हूं, चेला तो मैं नहीं बनूंगा।'

घाटे का धंधा कौन करना चाहेगा? लेकिन साधु जीवन में पद-प्रतिष्ठा की दृष्टि से हानि-लाभ का आकलन नहीं किया जाता। साधु ही सबसे बड़ा पद है। साधु का पद मिला तो और क्या चाहिए।

वाणी पर संयम

पहलवान रास्ते से जा रहा था। सामने से आते हुए मरियल से आदमी को पता नहीं क्या सूझा, बोल पड़ा— 'सूजा हुआ ऎसा शरीर किस काम का। जहां बैठते हो, दो-तीन आदमियों की जगह रोक लेते हो।'
इतना सुनना था कि पहलवान का सधा हुआ हाथ उस व्यक्ति के जबड़े पर पड़ा और इसी के साथ उसकी बत्तीसी ढीली हो गई। मुंह से खून निकल आया। चुपचाप अपनी राह पकड़ ली। तभी एक तीसरा व्यक्ति मिला। पूछा, 'यह क्या हुआ भाई, कहीं गिर पड़े क्या?'

उस व्यक्ति ने मुंह से आ रहे खून को पोंछते हुए कहा, 'नहीं, गिरा नहीं, थोड़ी-सी जबान चल गई और व्यर्थ में काम बढ़ा लिया।' उसने पूरी कहानी कह सुनाई।

घर में और समाज में अघिकांश लड़ाई-झगड़े क्यों होते हैं? इसलिए कि वाणी का संयम नहीं है, जीभ पर नियंत्रण नहीं है। कुछ लोग तो आदी हो जाते हैं। कुछ न कुछ कड़वा-खारा बोलते रहते हैं और किसी न किसी से उनकी भिड़ंत होती रहती है।

वाणी के दोनों पक्ष हैं—अच्छा और बुरा। कुछ लोग वाणी के इतने मधुर होते हैं कि सहज ही वे लोगों के आत्मीय बन जाते हैं। अच्छा बोलने में कुछ खर्च नहीं करना पड़ता। लेकिन कुछ ऎसे होते हैं, जिन्हें दुश्मनों की संख्या बढ़ाने में आनंद आता है। कुछ लोग ऎसे भी होते हैं, जो दूसरों को कटु वचन तो नहीं बोलते, किंतु मुंह से अपशब्द निकालने की आदत होती है। सामान्य बातचीत में भी वे भद्दे शब्दों का प्रयोग करते हैं। कुछ भद्दे शब्द उनका तकियाकलाम बन जाते हैं।
हम वाणी पर संयम करना सीखें।

परम्पराएं स्वस्थ हों

किसी परिवार में एक व्यक्ति के चार बेटे और चार बहुएं थीं। पिता वृद्ध और लाचार हो गया तो उसकी उपेक्षा होने लगी। बेटों और बहुओं को उसकी सेवा भारी लगने लगी। चारों भाइयों ने मिलकर विचार किया और वृद्ध पिता को पशुओं के बाड़े में डाल दिया। उसे एक टोकरा दे दिया यह कह कर कि भूख लगे तो उसे बजा दिया करो, भोजन भिजवा दिया जाएगा।


पशुओं के बाड़े में पड़ा, वृद्ध पिता अपनी असमर्थता पर आंसू बहाता। भूख से विकल होकर वह कांपते हाथों से टोकरा बजाता तो घर का कोई सदस्य अनिच्छापूर्वक बाड़े में जाता और एक पात्र में रूखी रोटियां डाल देता। कुछ दिन तक क्रम चलता रहा। एक दिन उस वृद्ध के पौत्र ने कौतूहलवश बाड़े में झांका। उसने देखा—दादाजी दयनीय अवस्था में एक टूटी चारपाई पर पड़े कराह रहे हैं। वह बच्चा बाड़े के भीतर गया, दादा से सारी बात पूछी। वहां मिट्टी के कुछ जूठे ठीकरे पड़े हुए थे। वह उन्हें उठा लाया और अपने कमरे के बाहर रख दिया। बच्चे के पिता ने उन्हें देखा तो पूछा, 'इन्हें यहां लाकर क्यों रखा है?'

बच्चे ने जवाब दिया, 'आपके लिए। एक दिन जब आपको हम जानवरों के बाड़े में डाल देंगे तो खाना देने के लिए इन ठीकरों की जरूरत पड़ेगी। हम उसका पहले से प्रबंध कर रहे हैं।' पिता बेटे का यह उत्तर सुनकर सन्न रह गया। वह बाड़े में गया और पिता को घर में ले आया।

हर व्यक्ति को यह सोचना है कि उसके द्वारा डाली गई परम्परा का पालन अगली पीढ़ी करेगी, इसलिए ऎसा कोई काम नहीं करना चाहिए, जो स्वयं को अप्रिय लगे। उपेक्षा की तो आपकी भी एक दिन उपेक्षा जरूर होगी।

Saturday 16 March 2013

हम क्रोध में शांति खो देते हैं


एक सन्यासी अपने शिष्यों के साथ गंगा नदी के तट पर नहाने पहुंचा. वहां एक ही परिवार के कुछ लोग अचानक आपस में बात करते-करते एक दूसरे पर क्रोधित हो उठे और जोर-जोर से चिल्लाने लगे.

संयासी यह देख तुरंत पलटा और अपने शिष्यों से पुछा;

"क्रोध में लोग एक दूसरे पर चिल्लाते क्यों हैं ?"

शिष्य कुछ देर सोचते रहे, एक ने उत्तर दिया, "क्योंकि हम क्रोध में शांति खो देते हैं इसलिए !”

"पर जब दूसरा व्यक्ति हमारे सामने ही खड़ा है तो भला उस पर चिल्लाने की क्या ज़रुरत है, जो कहना है वो आप धीमी आवाज़ में भी तो कह सकते हैं", सन्यासी ने पुनः प्रश्न किया.

कुछ और शिष्यों ने भी उत्तर देने का प्रयास किया पर बाकी लोग संतुष्ट नहीं हुए.

अंततः सन्यासी ने समझाया…

“जब दो लोग आपस में नाराज होते हैं तो उनके दिल एक दूसरे से बहुत दूर हो जाते हैं. और इस अवस्था में वे एक दूसरे को बिना चिल्लाये नहीं सुन सकते… वे जितना अधिक क्रोधित होंगे उनके बीच की दूरी उतनी ही अधिक हो जाएगी और उन्हें उतनी ही तेजी से चिल्लाना पड़ेगा.

क्या होता है जब दो लोग प्रेम में होते हैं ? तब वे चिल्लाते नहीं बल्कि धीरे-धीरे बात करते हैं, क्योंकि उनके दिल करीब होते हैं, उनके बीच की दूरी नाम मात्र की रह जाती है.”

सन्यासी ने बोलना जारी रखा,” और जब वे एक दूसरे को हद से भी अधिक चाहने लगते हैं तो क्या होता है ? तब वे बोलते भी नहीं, वे सिर्फ एक दूसरे की तरफ देखते हैं और सामने वाले की बात समझ जाते हैं.”

अगर आप अपने आप को नहीं जानते, तो दूसरों को कैसे जानेंगे ?.....



स्वामी विवेकानंद एक कथा सुनाते थे। एक तत्वज्ञानी अपनी पत्नी से कह रहे थे, संध्या आने वाली है, काम समेट लो। एक शेर कुटी के पीछे यह सुन रहा था। उसने समझा संध्या कोई बड़ी शक्ति है, जिससे डरकर यह निर्भय ज्ञानी भी अपना सामान समेटने को विवश हुआ है। शेर चिंता में डूब गया। उसे 'संध्या' का डर सताने लगा। पास के घाट का धोबी दिन छिपने पर अपने कपड़े समेट कर गधे पर लादने की तैयारी करने लगा। देखा तो उसका गधा गायब। उसे ढूंढने में देर हो गई, रात घिर आई और बारिश भी शुरू हो गई।

धोबी को एक झाड़ी में खड़खड़ाहट सुनाई दी, वह समझा गधा है। वह लाठी से उसे पीटने लगा- 'धूर्त यहां छुपा बैठा है...' शेर थर थर कांपने लगा। धोबी उसे घसीट लाया और उस पर कपड़े लादकर घर चल दिया। रास्ते में एक दूसरा शेर मिला। उसने साथी की बुरी हालत देखी तो पूछा- 'क्या हुआ? तुम इस तरह लदे क्यों फिर रहे हो।' सिंह ने कहा-'संध्या के चंगुल में फंस गया हूं। यह बुरी तरह पीटती है और इतना वजन लाद देती है।'

शेर को कष्ट देने वाली संध्या नहीं, उसकी भ्रांति थी। इसके कारण धोबी को बड़ा देव-दानव समझ लिया गया और उसका भार और प्रहार बिना सिर हिलाए स्वीकार लिया गया। हमारी भी यही स्थिति है। अपने वास्तविक स्वरूप को न समझने और संसार के साथ, जड़ पदार्थों के साथ अपने संबंधों का ठीक तरह तालमेल न मिला सकने की गड़बड़ी ने ही हमें दुखी परिस्थितियों में धकेल दिया है। इनमें अंधकार के अलावा और कुछ दिखता ही नहीं। इस भ्रांति को ही 'माया' कहा गया है। 'माया' को ही बंधन कहा गया है और दुखों का कारण बताया गया है। यह माया हमारा अज्ञान है।

संसार में जानने को बहुत कुछ है, पर सबसे महत्वपूर्ण जानकारी अपने आप के संबंध की है। उसे जान लेने पर बाकी जानकारियां प्राप्त करना सरल हो जाता है। ज्ञान का आरंभ आत्मज्ञान से होता है। जब हम अपने आप को नहीं जानते, तो दूसरों को कैसे जानेंगे।

बाहर की चीजें ढूंढने में मन इसलिए लगा रहता है कि अपने को ढूंढने के झंझट से बचा जा सके। क्योंकि जिस स्थिति में आज हम है, उसमें अंधेरा और अकेलापन दीखता है। मनुष्य ने स्वयं ही अपने को डरावना बना लिया है और भयभीत होकर स्वयं ही भागता है। अपने को देखने, खोजने और समझने की इच्छा इसीलिए नहीं होती। मन बहलाने के लिए हम बाहर की चीजें खोजते हैं।
क्या सचमुच भीतर अंधेरा है? क्या हम वाकई अकेले और सूने हैं? नहीं, प्रकाश का ज्योतिपुंज अपने भीतर मौजूद है। एक पूरा संसार ही अपने भीतर है। उसे पाने और देखने के लिए आवश्यक है कि मुंह अपनी ओर हो। पीठ फेर लेने पर तो सूर्य भी दिखाई नहीं पड़ता।

बाहर केवल जड़ जगत है, पंच भूतों का बना हुआ, निर्जीव। बहिरंग दृष्टि लेकर तो हम जड़ता ही देख सकेंगे। अपना जो स्वरूप आंखों से दिखता, कानों से सुनाई पड़ता है, जड़ है। ईश्वर को भी यदि बाहर देखा जाएगा तो उसके रूप में जड़ता या माया ही दिखेगी। अंदर जो है, वही सत् है। इसे अंतर्मुखी होकर देखना पड़ता है। आत्मा और उसके साथ जुडे़ हुए परमात्मा को देखने के लिए अंतदृष्टि की आवश्यकता है। इस प्रयास में अंतर्मुखी हुए बिना काम नहीं चलता।
स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, शांति आदि विभूतियों की खोज में कहीं और जाने की जरूरत नही है। हमारी श्रुतियां कहती हैं- अपने आप को जानो, अपने को प्राप्त करो और अमृतत्व में लीन हो जाओ। तत्वज्ञानियों ने उसे ही सारी उपलब्धियों को सार कहा है। क्योंकि जो बाहर दिख रहा है, वह भीतरी तत्व का विस्तार है। अपना आपा जिस स्तर का होता है, संसार का स्वरूप वैसा ही दिखता है।

आप अपना बेहतर दीजिये, फिर देखिये सारी दुनिया आपकी प्रशंसा करेगी

एक छोटा बच्चा एक बड़ी दुकान पर लगे टेलीफोन बूथ पर जाता हैं और मालिक से छुट्टे पैसे लेकर एक नंबर डायल करता हैं|
दुकान का मालिक उस लड़के को ध्यान से देखते हुए उसकी बातचीत पर ध्यान देता हैं
लड़का- मैडम क्या आप मुझे अपने बगीचे की साफ़ सफाई का काम देंगी?
औरत- (दूसरी तरफ से) नहीं, मैंने एक दुसरे लड़के को अपने बगीचे का काम देखने के लिए रख लिया हैं|
लड़का- मैडम मैं आपके बगीचे का काम उस लड़के से आधे वेतन में करने को तैयार हूँ!
औरत- मगर जो लड़का मेरे बगीचे का काम कर रहा हैं उससे मैं पूरी तरह संतुष्ट हूँ|
लड़का- ( और ज्यादा विनती करते हुए) मैडम मैं आपके घर की सफाई भी फ्री में कर दिया करूँगा!!
औरत- माफ़ करना मुझे फिर भी जरुरत नहीं हैं धन्यवाद| लड़के के चेहरे पर एक मुस्कान उभरी और उसने फोन का रिसीवर रख दिया|
दुकान का मालिक जो छोटे लड़के की बात बहुत ध्यान से सुन रहा था 

वह लड़के के पास आया और बोला- " बेटा मैं तुम्हारी लगन और व्यवहार से बहुत खुश हूँ, मैं तुम्हे अपने स्टोर में नौकरी दे सकता हूँ" 

लड़का- नहीं सर मुझे जॉब की जरुरत नहीं हैं आपका धन्यवाद| 

दुकान मालिक- (आश्चर्य से) अरे अभी तो तुम उस लेडी से जॉब के लिए इतनी विनती कर रहे थे !! 

लड़का- नहीं सर, मैं अपना काम ठीक से कर रहा हूँ की नहीं बस मैं ये चेक कर रहा था, मैं जिससे बात कर रहा था, उन्ही के यहाँ पर जॉब करता हूँ|
*"This is called Self Appraisal"
"आप अपना बेहतर दीजिये, फिर देखिये सारी दुनिया आपकी प्रशंसा करेगी....  l