Monday 8 April 2013

वाणी पर संयम

पहलवान रास्ते से जा रहा था। सामने से आते हुए मरियल से आदमी को पता नहीं क्या सूझा, बोल पड़ा— 'सूजा हुआ ऎसा शरीर किस काम का। जहां बैठते हो, दो-तीन आदमियों की जगह रोक लेते हो।'
इतना सुनना था कि पहलवान का सधा हुआ हाथ उस व्यक्ति के जबड़े पर पड़ा और इसी के साथ उसकी बत्तीसी ढीली हो गई। मुंह से खून निकल आया। चुपचाप अपनी राह पकड़ ली। तभी एक तीसरा व्यक्ति मिला। पूछा, 'यह क्या हुआ भाई, कहीं गिर पड़े क्या?'

उस व्यक्ति ने मुंह से आ रहे खून को पोंछते हुए कहा, 'नहीं, गिरा नहीं, थोड़ी-सी जबान चल गई और व्यर्थ में काम बढ़ा लिया।' उसने पूरी कहानी कह सुनाई।

घर में और समाज में अघिकांश लड़ाई-झगड़े क्यों होते हैं? इसलिए कि वाणी का संयम नहीं है, जीभ पर नियंत्रण नहीं है। कुछ लोग तो आदी हो जाते हैं। कुछ न कुछ कड़वा-खारा बोलते रहते हैं और किसी न किसी से उनकी भिड़ंत होती रहती है।

वाणी के दोनों पक्ष हैं—अच्छा और बुरा। कुछ लोग वाणी के इतने मधुर होते हैं कि सहज ही वे लोगों के आत्मीय बन जाते हैं। अच्छा बोलने में कुछ खर्च नहीं करना पड़ता। लेकिन कुछ ऎसे होते हैं, जिन्हें दुश्मनों की संख्या बढ़ाने में आनंद आता है। कुछ लोग ऎसे भी होते हैं, जो दूसरों को कटु वचन तो नहीं बोलते, किंतु मुंह से अपशब्द निकालने की आदत होती है। सामान्य बातचीत में भी वे भद्दे शब्दों का प्रयोग करते हैं। कुछ भद्दे शब्द उनका तकियाकलाम बन जाते हैं।
हम वाणी पर संयम करना सीखें।

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