Thursday 19 July 2012

कुलीनता का बोध

Wednesday, 18 Jul 2012 2:57:33 hrs IST
पुराने जमाने की बात है। एक प्रज्ञाचक्षु लाठी के सहारे जा रहा था। जिसके आंख नहीं होती, उसे शिष्ट भाषा में 'सूरदास' कहते हैं। सामने से कई आदमियों की एक टोली आ रही थी। प्रज्ञाचक्षु के पास वह टोली आई, तो उसमें से एक भाई ने कहा, 'अंधा बाबा राम-राम।' प्रज्ञाचक्षु ने कहा, 'गोला भाई, राम-राम।'उसमें से एक ठाकुर साहब ने सामने आकर कहा, 'सूरदासजी, राम-राम।' सूरदास ने कहा, 'हां, ठाकरां, राम-राम।'तभी किसी ने कहा, 'सूरदासजी, आपने 'गोला' और 'ठाकुर' की पहचान कैसे कर ली? आपके तो नेत्र ही नहीं हैं? ये कैसे सम्भव हो सका है?'

सूरदास ने कहा, 'बोली के कारण मैंने पहचान लिया। जिसने 'अंधा' कहा, वह निश्चित ही कोई निम्न जाति का ही व्यक्ति हो सकता है। जो भी शालीन, शिष्ट भाषा का प्रयोग करेगा, वह अव्यक्त रूप से अपनी कुलीनता का भी बोध करा देगा। सूरदास का सम्बोधन देने वाला कोई ठाकुर ही हो सकता है।'

हम वाचिक अहिंसा का विकास करें, क्योंकि परस्पर के सामुदायिक जीवन के लिए वह बहुत जरूरी है। स्वयं अपने विकास के लिए तो जरूरी है ही। ऎसा लगता है कि अभी भी भारतीय मानस में वाचिक अहिंसा का समुचित विकास नहीं हुआ है। बहुत से लोग यह जानते ही नहीं हैं कि वचन से भी हिंसा हो सकती है। बहुत से लोगों की भाषा आज भी लट्ठमार है। अहंकार, आवेश, उत्तेजना, स्वयं को उच्च और दूसरों को हीन मानने की प्रवृत्ति वाणी में मिठास नहीं रहने देती है।

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