Saturday 29 September 2012

धैर्य से सफलता

एक नवयुवक एक महान तपस्वी संत के पास योगविद्या सीखने गया।
गुरू जी ने कहा, 'मैं तुम्हें एक शर्त पर योग विद्या सिखाऊंगा और वह यह कि तुम मेरे लिए एक छोटी-सी साधना कुटिया का निर्माण करो तब।'
युवक ने शीघ्र ही एक कुटिया का निर्माण कर दिया। गुरू जी ने कुटिया को देखा और कहा कि इसको तोड़कर फिर से नई कुटिया का निर्माण करो। युवक ने फिर से नई कुटिया का निर्माण किया। गुरू जी ने कुटिया को देखा और फिर से कहा कि इसको तोड़कर नई कुटिया का निर्माण करो। यह क्रम चलता ही गया। आखिर में जब ग्यारहवीं बार गुरू ने कुटिया को तोड़कर नई कुटिया का निर्माण करने का आदेश दिया।

युवक भी बिना कोई प्रश्न किए ग्यारहवीं बार भी कुटिया बनाने के लिए तैयारी करने लगा, तब गुरू के मुख से शब्द निकले, 'साधु...साधु... हे नवयुवक तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हुई।
एक साधक को सीखने के लिए जो स्थिति बनानी चाहिए, वह तुम्हारी बन चुकी है और तुम बुद्धि से भी पूर्ण रूप से समर्पित और धैर्यता से सफल हुए हो। अगर तुम्हारे अन्दर जरा-सा भी अपनी बुद्धिमता का अहंकार होता, तो तुम यहां टिक नहीं सकते थे, परन्तु तुमने अपनी अवस्था को बिल्कुल निर्विकल्प रखा, जिसके फलस्वरूप तुम्हारी विजय हुई।'
हमारे जीवन में भी हमें सिखाने के लिए कई प्रकार की समस्याएं, बाधाएं और विपदाएं आती हैं। हमें सदा धैर्य पूर्वक उनका सामना करना चाहिए। याद रखें, जो व्यक्ति जीवन में धैर्य व बौद्धिक स्तर से अहंकारहीनता के गुण को धारण करता है, वह अवश्य ही सफलता को प्राप्त करता है।

Saturday 22 September 2012

प्रेम और भक्ति में हिसाब !

एक पहुंचे हुए सन्यासी का एक शिष्य था, जब भी किसी मंत्र का जाप करने बैठता तो संख्या को खडिया से दीवार पर लिखता जाता। किसी दिन वह लाख तक की संख्या छू लेता किसी दिन हजारों में सीमित हो जाता। उसके गुरु उसका यह कर्म नित्य देखते और मुस्कुरा देते।

एक दिन वे उसे पास के शहर में भिक्षा मांगने ले गये। जब वे थक गये तो लौटते में एक बरगद की छांह बैठे, उसके सामने एक युवा दूधवाली दूध बेच रही थी, जो आता उसे बर्तन में नाप कर देती और गिनकर पैसे रखवाती। वे दोनों ध्यान से उसे देख रहे थे। तभी एक आकर्षक युवक आया और दूधवाली के सामने अपना बर्तन फैला दिया, दूधवाली मुस्कुराई और बिना मापे बहुत सारा दूध उस युवक के बर्तन में डाल दिया, पैसे भी नहीं लिये। गुरु मुस्कुरा दिये, शिष्य हतप्रभ!

उन दोनों के जाने के बाद, वे दोनों भी उठे और अपनी राह चल पडे। चलते चलते शिष्य ने दूधवाली के व्यवहार पर अपनी जिज्ञासा प्रकट की तो गुरु ने उत्तर दिया,

'' प्रेम वत्स, प्रेम! यह प्रेम है, और प्रेम में हिसाब कैसा? उसी प्रकार भक्ति भी प्रेम है, जिससे आप अनन्य प्रेम करते हो, उसके स्मरण में या उसकी पूजा में हिसाब किताब कैसा?'' और गुरु वैसे ही मुस्कुराये व्यंग्य से।

'' समझ गया गुरुवर। मैं समझ गया प्रेम और भक्ति के इस दर्शन को।

तृष्णा त्यागें

गरीबी से तंग आकर एक व्यक्ति जंगल की ओर चला गया। जंगल में उसने एक संन्यासी को देखा। 
संन्यासी के पास जाकर वह बोला, 'महाराज मैं आपकी शरण में आया हूं। गरीब आदमी हूं, मेरा उद्धार करो।' साधु ने कहा, 'क्या चाहिए तुम्हें।' वह बोला, 'मेरी स्थिति देखकर पूछ रहे हैं कि क्या चाहिए मुझे। मैं गरीब हूं। धन दे दें।' संन्यासी ने कहा, 'धन छोड़कर ही तो मैं जंगल में आया हूं। धन तो मेरे पास नहीं है।' गरीब याचक अड़ गया।

उसकी भावना देखकर संन्यासी द्रवित हो गए और बोले, 'मेरे पास तो कुछ है नहीं, दूर सामने जो नदी के पास चमकीला पत्थर है, उसे ले लो। याचक बोला, 'पत्थर तोड़-तोड़ कर ही तो मेरे हाथ में छाले पड़े हैं। कुछ धन दिलाएं जिससे गरीबी दूर हो।' संन्यासी ने कहा, वह सामान्य पत्थर नहीं, पारस पत्थर है। वह प्रसन्न हो गया और पारस पत्थर उठाकर घर की ओर चल पड़ा।

पत्थर लेकर वह चल तो पड़ा, लेकिन रास्ते में मन में उथल-पुथल होने लगी। पहले तो सोचा कि चलो अच्छा हुआ, गरीबी मिट गई, पर तत्काल दूसरा चिन्तन शुरू हो गया। चिंतन गंभीर होता गया। वह वापस संन्यासी के पास जा पहुंचा और बोला, 'यह वापस करने आया हूं।'

संन्यासी ने कहा, 'क्यों?' याचक बोला, 'आपने मुझे पारस पत्थर दिया। इसका अर्थ यह है कि आपके पास इससे भी और कोई मूल्यवान चीज है। वह मुझे दे दीजिए जिसे पाकर आपने इसे त्याग दिया।' जिस व्यक्ति में तृष्णा का नाश हो जाता है, उसके लिए कोई भी वस्तु, कितनी भी कीमती क्यों न हो, कोई मायने नहीं रखती। आकर्षण तृष्णा के कारण ही पैदा होता है।
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Monday 17 September 2012

काम की उपयोगिता


माना जाता है कि जो चीज अनुपयोगी हो, उसे छोड़ देना चाहिए। जो ऎसा नहीं करता, उसे कम से कम समझदार तो नहीं कहा जा सकता। एक आदमी यात्रा पर जा रहा था। रास्ते में उसने एक तालाब देखा जिसका पानी लगभग सूख चुका था। पानी के नाम पर सिर्फ गंदा कीचड़ था। तभी उसने देखा एक आदमी अपने मटके में वह कीचड़युक्त पानी भर रहा है। यात्री ने कहा, 'भाई! इस गंदे पानी का क्या करोगे? यह तो किसी कम का नहीं है।' उसने कहा, 'पीने के लिए ले जा रहा हूं।'

'इस गंदे पानी को पियोगे? गंदा पानी पीने से बीमार हो जाओगे। संक्रमण हो जाएगा और जल्दी ठीक भी नहीं हो पाओगे। इसी रास्ते से कुछ दूर आगे जाओ, एक स्वच्छ पानी का जलाशय मिलेगा, मैं अभी उसका पानी पीकर आ रहा हूं। पानी मीठा भी है।'

उस व्यक्ति ने कहा, 'बताने और सलाह देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। मैं दूर का नहीं, यहीं पास के गांव का रहने वाला हूं और जानता हूं कि कहां क्या है? मैं पानी पिऊंगा तो इसी तालाब का पिऊंगा, क्योंकि यह मेरे पूर्वजों द्वारा निर्मित तालाब है। मेरे पितामह, और पिताजी ने जीवन भर इसी तालाब का पानी पिया था। मैं इस तालाब के अलावा और कहीं का पानी पी ही नहीं सकता।'

वास्तव में देखा जाए तो यह कोई तर्क  नहीं है कि सदियों से ऎसा चला आ रहा है, इसलिए आगे भी ऎसा ही चलता रहेगा। हम जो काम कर रहे हैं, उसकी उपयोगिता और परिणाम पर भी दृष्टिपात करना चाहिए।

Friday 14 September 2012

सीमा में रहना अच्छा


 सड़क किनारे एक बुढिया अपना ढाबा चलाती थी। एक मुसाफिर आया। दिन भर का थका, उसने विश्राम करने की सोची। बुढिया से कहा, 'क्या रात्रि भर यहां आश्रय मिल सकेगा?' बुढिया ने कहा, क्यों नहीं, आराम से यहां रात भर सो सकते हो।'

यात्री ने पास में पड़ी चारपाइयों की ओर संकेत कर कहा, 'इस पर सोने का क्या चार्ज लगेगा?' बुढिया ने कहा, 'चारपाई के सिर्फ आठ आना।' यात्री ने सोचा रात भर की ही तो बात है। बेकार में अठन्नी क्यों खर्च की जाए। आंगन में काफी जगह है, वहीं सो जाऊंगा।

यह सोचकर उसने फिर कहा, 'और अगर चारपाई पर न सोकर आंगन की भूमि पर ही रात काट लूं तो क्या लगेगा?' 'फिर पूरा एक रूपया लगेगा।' बुढिया ने कहा।

बुढिया की बात सुन यात्री को उसके दिमाग पर संदेह हुआ। चारपाई पर सोने का आठ आना और भूमि पर चादर बिछाकर सोने का एक रूपया। यह तो बड़ी विचित्र बात है। उसने बुढिया से पूछा, 'ऎसा क्यों?'

बुढिया ने कहा, 'चारपाई की सीमा है। तीन फुट चौड़ी, छह फुट लंबी जगह ही घेरोगे। बिना चारपाई सोओगे तो पता नहीं कितनी जगह घेर लो।' सीमा में रहना ही ठीक है। असीम की बात समस्या पैदा करती है।

Wednesday 12 September 2012

अज्ञान को जानें


आदमी पढ़ता है, जानता है और कुछ लोग मान भी लेते हैं कि हम बहुत जानते हैं। किंतु कोई भी व्यक्ति इस दुनिया में नहीं मिलेगा, जो यह कह सके कि मैं सब कुछ जानता हूं। जो जानता है, वह कितना जानता है? अगर हम ज्ञात और अज्ञात की तुलना करें तो अज्ञात एक महासमुद्र है और उसमें जो ज्ञात है, वह एक छोटे से टापू से ज्यादा कुछ नहीं, मात्र एक छोटा-सा द्वीप है। अज्ञात बहुत ज्यादा है।

एक अनुश्रुति है, वह बहुत मार्मिक है। कहा जाता है कि यूनान की राजधानी एथेंस में एक दिन देववाणी हुई कि सुकरात सबसे बड़ा ज्ञानी है। लोग जो सुकरात के प्रशंसक थे, वे दौड़कर सुकरात के पास पहंुचे और उन्हें बताया कि आकाशवाणी हुई है कि आप सबसे बड़े ज्ञानी हैं। सुकरात ने कहा, 'यह बिल्कुल गलत बात है। तुम लोगों ने ठीक से नहीं सुना होगा। मैं सबसे बड़ा ज्ञानी नहीं हूं। मैं तो अपने को अज्ञानी मानता हूं।'

 लोग लौटकर गए और देवी से पूछा, 'आपने कहा कि सुकरात सबसे बड़ा ज्ञानी है।' जब यह बात हम लोगों ने उससे कही तो वह कहता है, झूठी बात है। मैं सबसे बड़ा ज्ञानी नहीं हूं, अज्ञानी हूं। आप बताएं सच्चाई क्या है? देवी ने कहा, 'जो अपने अज्ञान को जानता है, वस्तुत: वही सबसे बड़ा ज्ञानी है।' अपने अज्ञान को जानने वाला ही ज्ञानी होता है। जो ज्ञान का अहंकार करता है, वह कभी ज्ञानी नहीं होता। हर  व्यक्ति अनुभव करे, अपने अज्ञान को देखे कि अभी मैं कितना कम जानता हूं। जानना बहुत कुछ है। कुछ लोग पढ़-लिखकर अहंकारी हो जाते हैं, यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है।

Friday 7 September 2012

लालच और वैराग्य


भतृहरि जंगल में बैठे साधना में लीन थे। अचानक उनका ध्यान भंग हुआ। आंख खुली तो देखा — जमीन पर पड़ा एक हीरा सूर्य की रोशनी को भी फीकी कर रहा है। एक समय था जब भतृहरि राजा थे। अनेक हीरे-मोती उनकी हथेलियों से होकर गुजरे थे। लेकिन ऎसा चमकदार हीरा, तो उन्होंने कभी नहीं देखा था।
एक पल के लिए उनके मन में इच्छा जागी — इस हीरे को क्यों न उठा लूं। 

लेकिन चेतना ने, भीतर की आत्मा ने वैसा करने से इनकार कर दिया। लालच की उठी तरंगें भतृहरि के मन को आंदोलित नहीं कर सकीं। तभी उन्होंने देखा— दो घुड़सवार घोड़ा दौड़ाते हुए चले आ रहे हैं। दोनों के हाथ में नंगी तलवार थी। दोनों ही उस पर अपना हक बता रहे थे। जुबानी कोई फैसला न हो पाया, तो दोनों आपस में भिड़ गए। तलवारें चमकीं और एक क्षण बाद भतृहरि ने देखा- जमीन पर लहूलुहान पड़ी दो लाशें। हीरा अपनी जगह पड़ा, अब भी अपनी चमक बिखेर रहा था। 

लेकिन इतने समय में ही बहुत कुछ हो गया। एक के मन में लालच उठा, किंतु वह वैराग्य को पुष्ट कर गया और दो व्यक्ति कुछ क्षण पहले जीवित थे, एक निर्जीव पत्थर के लिए उन्होंने प्राण न्यौछावर कर दिए। धरती पर पड़ा हीरा नहीं जानता कि कोई उससे आकर्षित हो रहा है। यही स्थिति हमारी है। धरती पर ऎसा कुछ भी नहीं, जिसका आकर्षण हममें हो, लेकिन हम हैं जो आकर्षण में उलझे रहते हैं और खोते रहते हैं अपना बहुत कुछ, थोड़ा पाने की लालसा में।

Saturday 1 September 2012

कर्म से पहले अंजाम सोचें


एक बार राजा नगरचर्या में निकले। रास्ते में देखा कि एक फकीर चिल्ला रहा था, 'एक नसीहत एक लाख'। राजा को जिज्ञासा हुई। राजा ने फकीर से पूछा, तो जवाब मिला कि यदि आप धनराशि दे, तो ही आपको नसीहत प्राप्त होगी। राजा ने अपने वजीर से कहकर धनराशि फकीर को दी और नसीहत के रूप में, कागज का एक टुकड़ा प्राप्त किया। कागज पर लिखा था, 'कर्म करने से पहले उसके अंजाम को सोच।' 

राजा ने फकीर से पूछा, 'इसके लिए इतनी धनराशि आपने ली?' फकीर ने मुस्कुराते हुए कहा, 'यही नसीहत एक दिन आपके प्राण बचाएगी।' राजा ने महल में जगह-जगह इस नसीहत को फ्रेम करवाकर लगवा दिया। 

कुछ दिनों के पश्चात राजा बीमार पड़ा, तो वजीर के मन में बड़ा लालच पैदा हुआ और वह राजा का खून करने के लिए उनके खंड में पहुंच गया। ज्यों ही वह राजा पर हमला करने के लिए आगे बढ़ा, उसकी नजर फकीर के दिए हुए संदेश पर पड़ी, जिसमें लिखा था, 'कर्म करने से पहले अंजाम को सोच'... वजीर ने परिणाम के बारे में सोचा और थम गया। उसने तुरंत राजा के पैरों में गिरकर माफी मांगी।

इस कहानी से हमें सबसे बड़ी सीख यह लेनी है कि हम जीवन में बिना अंजाम सोचे अनेक कर्म करते हैं। जिसके फलस्वरूप आज मनुष्य आत्माओं के जीवन में दु:ख, अशांति और दरिद्रता आ गई है। यदि हम अंजाम को सोचें, तो निंदनीय घटनाओं का क्रम घटता जाएगा और धीरे-धीरे सुखमय संसार की स्थापना हो जाएगी और प्रत्येक व्यक्ति अच्छे व श्रेष्ठ कर्म करेगा।