Monday 8 April 2013

साधु का जीवन

सबकी अपनी-अपनी महत्वाकांक्षा है। शिष्य बनकर रहने में आदमी असुविधा का अनुभव करता है। 

एक संन्यासी कुटीर बनाकर रहता था। अकेले रहने के कई फायदे हैं, तो कई तरह की कठिनाइयां भी हैं। भिक्षा मांगकर लाना, साफ-सफाई, पानी की व्यवस्था, झोंपड़े की सार-संभाल— सब कुछ स्वयं करना पड़ता। मन में भावना रहती कि कोई चेला मिल जाए तो काम में मदद करे। 

एक दिन कहीं से घूमता-फिरता एक लड़का बाबा की कुटिया में पहुंचा। बाबा ने स्नेह से उससे बात की। मीठा गुड़ दिया, ठंडा पानी पिलाया और कहा, 'दुनिया बड़ी स्वार्थी है। क्या रखा है घर-गृहस्थी में? छोड़ो सब जंजाल और मेरे पास आ जाओ। मैं तुम्हें अपना चेला बना लूंगा।'


बाबा की बात लड़के को अच्छी लगी, लेकिन चेला का मतलब वह नहीं जानता था। पूछा, 'बाबा! यह चेला क्या होता है?'

बाबा ने कहा, 'यह भी तुम नहीं जानते, भोले हो। एक होता है गुरू जो आदेश देता है और एक होता है चेला, जो गुरू के आदेश को शिरोधार्य कर हुक्म बजाता है।'

लड़के ने कहा, 'बाबा! मुझे सोचने का अवसर दें।' बाबा ने समझा काम बन गया। लड़का चेला बनना मंजूर कर लेगा। 

लड़के ने दो क्षण पता नहीं क्या सोचा, फिर बोला, 'बाबा, मैंने अच्छी तरह से विचार कर लिया। गुरू बनाना चाहो तो मैं तैयार हूं, चेला तो मैं नहीं बनूंगा।'

घाटे का धंधा कौन करना चाहेगा? लेकिन साधु जीवन में पद-प्रतिष्ठा की दृष्टि से हानि-लाभ का आकलन नहीं किया जाता। साधु ही सबसे बड़ा पद है। साधु का पद मिला तो और क्या चाहिए।

वाणी पर संयम

पहलवान रास्ते से जा रहा था। सामने से आते हुए मरियल से आदमी को पता नहीं क्या सूझा, बोल पड़ा— 'सूजा हुआ ऎसा शरीर किस काम का। जहां बैठते हो, दो-तीन आदमियों की जगह रोक लेते हो।'
इतना सुनना था कि पहलवान का सधा हुआ हाथ उस व्यक्ति के जबड़े पर पड़ा और इसी के साथ उसकी बत्तीसी ढीली हो गई। मुंह से खून निकल आया। चुपचाप अपनी राह पकड़ ली। तभी एक तीसरा व्यक्ति मिला। पूछा, 'यह क्या हुआ भाई, कहीं गिर पड़े क्या?'

उस व्यक्ति ने मुंह से आ रहे खून को पोंछते हुए कहा, 'नहीं, गिरा नहीं, थोड़ी-सी जबान चल गई और व्यर्थ में काम बढ़ा लिया।' उसने पूरी कहानी कह सुनाई।

घर में और समाज में अघिकांश लड़ाई-झगड़े क्यों होते हैं? इसलिए कि वाणी का संयम नहीं है, जीभ पर नियंत्रण नहीं है। कुछ लोग तो आदी हो जाते हैं। कुछ न कुछ कड़वा-खारा बोलते रहते हैं और किसी न किसी से उनकी भिड़ंत होती रहती है।

वाणी के दोनों पक्ष हैं—अच्छा और बुरा। कुछ लोग वाणी के इतने मधुर होते हैं कि सहज ही वे लोगों के आत्मीय बन जाते हैं। अच्छा बोलने में कुछ खर्च नहीं करना पड़ता। लेकिन कुछ ऎसे होते हैं, जिन्हें दुश्मनों की संख्या बढ़ाने में आनंद आता है। कुछ लोग ऎसे भी होते हैं, जो दूसरों को कटु वचन तो नहीं बोलते, किंतु मुंह से अपशब्द निकालने की आदत होती है। सामान्य बातचीत में भी वे भद्दे शब्दों का प्रयोग करते हैं। कुछ भद्दे शब्द उनका तकियाकलाम बन जाते हैं।
हम वाणी पर संयम करना सीखें।

परम्पराएं स्वस्थ हों

किसी परिवार में एक व्यक्ति के चार बेटे और चार बहुएं थीं। पिता वृद्ध और लाचार हो गया तो उसकी उपेक्षा होने लगी। बेटों और बहुओं को उसकी सेवा भारी लगने लगी। चारों भाइयों ने मिलकर विचार किया और वृद्ध पिता को पशुओं के बाड़े में डाल दिया। उसे एक टोकरा दे दिया यह कह कर कि भूख लगे तो उसे बजा दिया करो, भोजन भिजवा दिया जाएगा।


पशुओं के बाड़े में पड़ा, वृद्ध पिता अपनी असमर्थता पर आंसू बहाता। भूख से विकल होकर वह कांपते हाथों से टोकरा बजाता तो घर का कोई सदस्य अनिच्छापूर्वक बाड़े में जाता और एक पात्र में रूखी रोटियां डाल देता। कुछ दिन तक क्रम चलता रहा। एक दिन उस वृद्ध के पौत्र ने कौतूहलवश बाड़े में झांका। उसने देखा—दादाजी दयनीय अवस्था में एक टूटी चारपाई पर पड़े कराह रहे हैं। वह बच्चा बाड़े के भीतर गया, दादा से सारी बात पूछी। वहां मिट्टी के कुछ जूठे ठीकरे पड़े हुए थे। वह उन्हें उठा लाया और अपने कमरे के बाहर रख दिया। बच्चे के पिता ने उन्हें देखा तो पूछा, 'इन्हें यहां लाकर क्यों रखा है?'

बच्चे ने जवाब दिया, 'आपके लिए। एक दिन जब आपको हम जानवरों के बाड़े में डाल देंगे तो खाना देने के लिए इन ठीकरों की जरूरत पड़ेगी। हम उसका पहले से प्रबंध कर रहे हैं।' पिता बेटे का यह उत्तर सुनकर सन्न रह गया। वह बाड़े में गया और पिता को घर में ले आया।

हर व्यक्ति को यह सोचना है कि उसके द्वारा डाली गई परम्परा का पालन अगली पीढ़ी करेगी, इसलिए ऎसा कोई काम नहीं करना चाहिए, जो स्वयं को अप्रिय लगे। उपेक्षा की तो आपकी भी एक दिन उपेक्षा जरूर होगी।