Saturday 16 March 2013

हम क्रोध में शांति खो देते हैं


एक सन्यासी अपने शिष्यों के साथ गंगा नदी के तट पर नहाने पहुंचा. वहां एक ही परिवार के कुछ लोग अचानक आपस में बात करते-करते एक दूसरे पर क्रोधित हो उठे और जोर-जोर से चिल्लाने लगे.

संयासी यह देख तुरंत पलटा और अपने शिष्यों से पुछा;

"क्रोध में लोग एक दूसरे पर चिल्लाते क्यों हैं ?"

शिष्य कुछ देर सोचते रहे, एक ने उत्तर दिया, "क्योंकि हम क्रोध में शांति खो देते हैं इसलिए !”

"पर जब दूसरा व्यक्ति हमारे सामने ही खड़ा है तो भला उस पर चिल्लाने की क्या ज़रुरत है, जो कहना है वो आप धीमी आवाज़ में भी तो कह सकते हैं", सन्यासी ने पुनः प्रश्न किया.

कुछ और शिष्यों ने भी उत्तर देने का प्रयास किया पर बाकी लोग संतुष्ट नहीं हुए.

अंततः सन्यासी ने समझाया…

“जब दो लोग आपस में नाराज होते हैं तो उनके दिल एक दूसरे से बहुत दूर हो जाते हैं. और इस अवस्था में वे एक दूसरे को बिना चिल्लाये नहीं सुन सकते… वे जितना अधिक क्रोधित होंगे उनके बीच की दूरी उतनी ही अधिक हो जाएगी और उन्हें उतनी ही तेजी से चिल्लाना पड़ेगा.

क्या होता है जब दो लोग प्रेम में होते हैं ? तब वे चिल्लाते नहीं बल्कि धीरे-धीरे बात करते हैं, क्योंकि उनके दिल करीब होते हैं, उनके बीच की दूरी नाम मात्र की रह जाती है.”

सन्यासी ने बोलना जारी रखा,” और जब वे एक दूसरे को हद से भी अधिक चाहने लगते हैं तो क्या होता है ? तब वे बोलते भी नहीं, वे सिर्फ एक दूसरे की तरफ देखते हैं और सामने वाले की बात समझ जाते हैं.”

अगर आप अपने आप को नहीं जानते, तो दूसरों को कैसे जानेंगे ?.....



स्वामी विवेकानंद एक कथा सुनाते थे। एक तत्वज्ञानी अपनी पत्नी से कह रहे थे, संध्या आने वाली है, काम समेट लो। एक शेर कुटी के पीछे यह सुन रहा था। उसने समझा संध्या कोई बड़ी शक्ति है, जिससे डरकर यह निर्भय ज्ञानी भी अपना सामान समेटने को विवश हुआ है। शेर चिंता में डूब गया। उसे 'संध्या' का डर सताने लगा। पास के घाट का धोबी दिन छिपने पर अपने कपड़े समेट कर गधे पर लादने की तैयारी करने लगा। देखा तो उसका गधा गायब। उसे ढूंढने में देर हो गई, रात घिर आई और बारिश भी शुरू हो गई।

धोबी को एक झाड़ी में खड़खड़ाहट सुनाई दी, वह समझा गधा है। वह लाठी से उसे पीटने लगा- 'धूर्त यहां छुपा बैठा है...' शेर थर थर कांपने लगा। धोबी उसे घसीट लाया और उस पर कपड़े लादकर घर चल दिया। रास्ते में एक दूसरा शेर मिला। उसने साथी की बुरी हालत देखी तो पूछा- 'क्या हुआ? तुम इस तरह लदे क्यों फिर रहे हो।' सिंह ने कहा-'संध्या के चंगुल में फंस गया हूं। यह बुरी तरह पीटती है और इतना वजन लाद देती है।'

शेर को कष्ट देने वाली संध्या नहीं, उसकी भ्रांति थी। इसके कारण धोबी को बड़ा देव-दानव समझ लिया गया और उसका भार और प्रहार बिना सिर हिलाए स्वीकार लिया गया। हमारी भी यही स्थिति है। अपने वास्तविक स्वरूप को न समझने और संसार के साथ, जड़ पदार्थों के साथ अपने संबंधों का ठीक तरह तालमेल न मिला सकने की गड़बड़ी ने ही हमें दुखी परिस्थितियों में धकेल दिया है। इनमें अंधकार के अलावा और कुछ दिखता ही नहीं। इस भ्रांति को ही 'माया' कहा गया है। 'माया' को ही बंधन कहा गया है और दुखों का कारण बताया गया है। यह माया हमारा अज्ञान है।

संसार में जानने को बहुत कुछ है, पर सबसे महत्वपूर्ण जानकारी अपने आप के संबंध की है। उसे जान लेने पर बाकी जानकारियां प्राप्त करना सरल हो जाता है। ज्ञान का आरंभ आत्मज्ञान से होता है। जब हम अपने आप को नहीं जानते, तो दूसरों को कैसे जानेंगे।

बाहर की चीजें ढूंढने में मन इसलिए लगा रहता है कि अपने को ढूंढने के झंझट से बचा जा सके। क्योंकि जिस स्थिति में आज हम है, उसमें अंधेरा और अकेलापन दीखता है। मनुष्य ने स्वयं ही अपने को डरावना बना लिया है और भयभीत होकर स्वयं ही भागता है। अपने को देखने, खोजने और समझने की इच्छा इसीलिए नहीं होती। मन बहलाने के लिए हम बाहर की चीजें खोजते हैं।
क्या सचमुच भीतर अंधेरा है? क्या हम वाकई अकेले और सूने हैं? नहीं, प्रकाश का ज्योतिपुंज अपने भीतर मौजूद है। एक पूरा संसार ही अपने भीतर है। उसे पाने और देखने के लिए आवश्यक है कि मुंह अपनी ओर हो। पीठ फेर लेने पर तो सूर्य भी दिखाई नहीं पड़ता।

बाहर केवल जड़ जगत है, पंच भूतों का बना हुआ, निर्जीव। बहिरंग दृष्टि लेकर तो हम जड़ता ही देख सकेंगे। अपना जो स्वरूप आंखों से दिखता, कानों से सुनाई पड़ता है, जड़ है। ईश्वर को भी यदि बाहर देखा जाएगा तो उसके रूप में जड़ता या माया ही दिखेगी। अंदर जो है, वही सत् है। इसे अंतर्मुखी होकर देखना पड़ता है। आत्मा और उसके साथ जुडे़ हुए परमात्मा को देखने के लिए अंतदृष्टि की आवश्यकता है। इस प्रयास में अंतर्मुखी हुए बिना काम नहीं चलता।
स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, शांति आदि विभूतियों की खोज में कहीं और जाने की जरूरत नही है। हमारी श्रुतियां कहती हैं- अपने आप को जानो, अपने को प्राप्त करो और अमृतत्व में लीन हो जाओ। तत्वज्ञानियों ने उसे ही सारी उपलब्धियों को सार कहा है। क्योंकि जो बाहर दिख रहा है, वह भीतरी तत्व का विस्तार है। अपना आपा जिस स्तर का होता है, संसार का स्वरूप वैसा ही दिखता है।

आप अपना बेहतर दीजिये, फिर देखिये सारी दुनिया आपकी प्रशंसा करेगी

एक छोटा बच्चा एक बड़ी दुकान पर लगे टेलीफोन बूथ पर जाता हैं और मालिक से छुट्टे पैसे लेकर एक नंबर डायल करता हैं|
दुकान का मालिक उस लड़के को ध्यान से देखते हुए उसकी बातचीत पर ध्यान देता हैं
लड़का- मैडम क्या आप मुझे अपने बगीचे की साफ़ सफाई का काम देंगी?
औरत- (दूसरी तरफ से) नहीं, मैंने एक दुसरे लड़के को अपने बगीचे का काम देखने के लिए रख लिया हैं|
लड़का- मैडम मैं आपके बगीचे का काम उस लड़के से आधे वेतन में करने को तैयार हूँ!
औरत- मगर जो लड़का मेरे बगीचे का काम कर रहा हैं उससे मैं पूरी तरह संतुष्ट हूँ|
लड़का- ( और ज्यादा विनती करते हुए) मैडम मैं आपके घर की सफाई भी फ्री में कर दिया करूँगा!!
औरत- माफ़ करना मुझे फिर भी जरुरत नहीं हैं धन्यवाद| लड़के के चेहरे पर एक मुस्कान उभरी और उसने फोन का रिसीवर रख दिया|
दुकान का मालिक जो छोटे लड़के की बात बहुत ध्यान से सुन रहा था 

वह लड़के के पास आया और बोला- " बेटा मैं तुम्हारी लगन और व्यवहार से बहुत खुश हूँ, मैं तुम्हे अपने स्टोर में नौकरी दे सकता हूँ" 

लड़का- नहीं सर मुझे जॉब की जरुरत नहीं हैं आपका धन्यवाद| 

दुकान मालिक- (आश्चर्य से) अरे अभी तो तुम उस लेडी से जॉब के लिए इतनी विनती कर रहे थे !! 

लड़का- नहीं सर, मैं अपना काम ठीक से कर रहा हूँ की नहीं बस मैं ये चेक कर रहा था, मैं जिससे बात कर रहा था, उन्ही के यहाँ पर जॉब करता हूँ|
*"This is called Self Appraisal"
"आप अपना बेहतर दीजिये, फिर देखिये सारी दुनिया आपकी प्रशंसा करेगी....  l

आप हाथी नहीं इंसान हैं !

एक आदमी कहीं से गुजर रहा था, तभी उसने सड़क के किनारे बंधे हाथियों को देखा, और अचानक रुक गया. उसने देखा कि हाथियों के अगले पैर में एक रस्सी बंधी हुई है, उसे इस बात का बड़ा अचरज हुआ कि हाथी जैसे विशालकाय जीव लोहे की जंजीरों की जगह बस एक छोटी सी रस्सी से बंधे हुए हैं!!! ये स्पष्ट था कि हाथी जब चाहते तब अपने बंधन तोड़ कर कहीं भी जा सकते थे, पर किसी वजह से वो ऐसा नहीं कर रहे थे.


उसने पास खड़े महावत से पूछा कि भला ये हाथी किस प्रकार इतनी शांति से खड़े हैं और भागने का प्रयास नही कर रहे हैं ? तब महावत ने कहा, ” इन हाथियों को छोटे से ही इन रस्सियों से बाँधा जाता है, उस समय इनके पास इतनी शक्ति नहीं होती कि इस बंधन को तोड़ सकें. बार-बार प्रयास करने पर भी रस्सी ना तोड़ पाने के कारण उन्हें धीरे-धीरे यकीन होता जाता है कि वो इन रस्सियों नहीं तोड़ सकते, और बड़े होने पर भी उनका ये यकीन बना रहता है, इसलिए वो कभी इसे तोड़ने का प्रयास ही नहीं करते.”

आदमी आश्चर्य में पड़ गया कि ये ताकतवर जानवर सिर्फ इसलिए अपना बंधन नहीं तोड़ सकते क्योंकि वो इस बात में यकीन करते हैं!!

इन हाथियों की तरह ही हममें से कितने लोग सिर्फ पहले मिली असफलता के कारण ये मान बैठते हैं कि अब हमसे ये काम हो ही नहीं सकता और अपनी ही बनायीं हुई मानसिक जंजीरों में जकड़े-जकड़े पूरा जीवन गुजार देते हैं.

याद रखिये असफलता जीवन का एक हिस्सा है और निरंतर प्रयास करने से ही सफलता मिलती है. यदि आप भी ऐसे किसी बंधन में बंधें हैं जो आपको अपने सपने सच करने से रोक रहा है तो उसे तोड़ डालिए….. आप हाथी नहीं इंसान हैं.

कहाँ हैं भगवान ?


एक आदमी हमेशा की तरह अपने नाई की दूकान पर बाल कटवाने गया . बाल कटाते वक़्त अक्सर देश-दुनिया की बातें हुआ करती थीं ….आज भी वे सिनेमा , राजनीति , और खेल जगत , इत्यादि के बारे में बात कर रहे थे कि अचानक भगवान् के अस्तित्व को लेकर बात होने लगी .

नाई ने कहा , “ देखिये भैया , आपकी तरह मैं भगवान् के अस्तित्व में यकीन नहीं रखता .”

“ तुम ऐसा क्यों कहते हो ?”, आदमी ने पूछा .

“अरे , ये समझना बहुत आसान है , बस गली में जाइए और आप समझ जायेंगे कि भगवान् नहीं है . आप ही बताइए कि अगर भगवान् होते तो क्या इतने लोग बीमार होते ?इतने बच्चे अनाथ होते ? अगर भगवान् होते तो किसी को कोई दर्द कोई तकलीफ नहीं होती ”, नाई ने बोलना जारी रखा , “ मैं ऐसे भगवान के बारे में नहीं सोच सकता जो इन सब चीजों को होने दे . आप ही बताइए कहाँ है भगवान ?”

आदमी एक क्षण के लिए रुका , कुछ सोचा , पर बहस बढे ना इसलिए चुप ही रहा .

नाई ने अपना काम ख़तम किया और आदमी कुछ सोचते हुए दुकान से बाहर निकला और कुछ दूर जाकर खड़ा हो गया. . कुछ देर इंतज़ार करने के बाद उसे एक लम्बी दाढ़ी – मूछ वाला अधेड़ व्यक्ति उस तरफ आता दिखाई पड़ा , उसे देखकर लगता था मानो वो कितने दिनों से नहाया-धोया ना हो .

आदमी तुरंत नाई कि दुकान में वापस घुस गया और बोला , “ जानते हो इस दुनिया में नाई नहीं होते !”

“भला कैसे नहीं होते हैं ?” , नाई ने सवाल किया , “ मैं साक्षात तुम्हारे सामने हूँ!! ”

“नहीं ” आदमी ने कहा , “ वो नहीं होते हैं वरना किसी की भी लम्बी दाढ़ी – मूछ नहीं होती पर वो देखो सामने उस आदमी की कितनी लम्बी दाढ़ी-मूछ है !!”

“ अरे नहीं भाईसाहब नाई होते हैं लेकिन बहुत से लोग हमारे पास नहीं आते .” नाई बोला

“बिलकुल सही ” आदमी ने नाई को रोकते हुए कहा ,” यही तो बात है , भगवान भी होते हैं पर लोग उनके पास नहीं जाते और ना ही उन्हें खोजने का प्रयास करते हैं, इसीलिए दुनिया में इतना दुःख-दर्द है.”

Thursday 7 March 2013

जरूरी है विवेक

एक व्यक्ति ने घर में बिल्ली और कुत्ता—दोनों पाल रखे थे। बिल्ली बहुत बोलती थी, दिन और रात म्याऊं-म्याऊं करती थी। मालिक को बड़ा अटपटा लगता, वह सोचता—सारे दिन म्याऊं-म्याऊं करती है, आराम भी नहीं करने देती। 
जब एक दिन बिल्ली म्याऊं-म्याऊं कर रही थी, मालिक उसे खूब पीटते हुए बोला—क्या सारे दिन म्याऊं-म्याऊं करती है? 
कुत्ते ने देखा—यह बोलती है इसलिए पीटी गई है, अब मैं बोलूंगा ही नहीं। उसने मौन कर लिया। 
रात को घर में चोर घुस गए। चोरी हो गई। 
सुबह हुई। मालिक लाठी लेकर कुत्ते पर बरस पड़ा, बोला— तुझे क्यों पाला है? इतनी रोटियां किसलिए खिलाई है? इसलिए पाला है कि चोर आए तो भौंक कर सूचित कर दो। तुमने मौन साध रखी है। मालिक ने उसे यह कहते हुए खूब पीटा।

बिल्ली की मरम्मत हुई ज्यादा बोलने के कारण और कुत्ते की मरम्मत हुई न बोलने के कारण। 
प्रश्न खड़ा हो जाता है कि मौन अच्छा है या बोलना अच्छा? क्या करें? 
हमें यह विवेक करना होता है—कहीं-कहीं मौन करना भी अच्छा है और कहीं-कहीं बोलना भी अच्छा है। बोलना भी जरूरी है और मौन भी जरूरी है। जो आदमी विवेक नहीं कर पाता है, अविवेक के साथ चलता है, वह समस्या पैदा कर लेता है। हम यह नहीं कह सकते कि लाभ अच्छा ही है और यह भी नहीं कह सकते कि अलाभ अच्छा नहीं ही है। कहीं-कहीं ऎसा होता है कि अलाभ आदमी को आगे बढ़ा देता है। कुछ मिला नहीं, इस चिंतन से मन में एक भावना जागती है और व्यक्ति बहुत आगे बढ़ जाता है।

दृष्टिकोण बदलें

पिता- पुत्र भोजन कर रहे थे। इतने में जोरदार आवाज हुई। पिता ने कहा, कोई बर्तन फूटा है। पुत्र बोल उठा, 'हां, कोई कांच का बर्तन फूटा है और मेरी मां के हाथ से फूटा है।' यह सुनते ही पिता को आवेश आ गया, 'तेरी क्या आदत पड़ गई है। हमेशा मां की बुराई देखता है।'
'पिताजी! मैं ठीक कह रहा हूं।'

'तुझे कैसे पता चला? हम तो यहां बैठे हैं।'
'मुझे पक्का पता है।' पिता और गुस्से में आ गया, 'कैसा नालायक है, अपनी मां की बुराई करता है, कभी पत्नी की नहीं करता।' 'मैं बिल्कुल ठीक कह रहा हूं। जब मां के हाथ से बर्तन गिरता है, तब केवल टंकार होता है। जब पत्नी के हाथ से कुछ गिरता है तब टंकार और झंकार—दोनों होते हैं।' 'जाओ, पहले पता करके आओ।'
लड़का भीतर गया और सारी स्थिति को जानकर बाहर आया। बोला, 'पिताजी! मां कांच का बर्तन ला रही थी। वह मां के हाथ से गिरा और गिरते ही फूट गया। मां स्वयं यह बता रहीं थीं।' 'भई! तुम्हें पता कैसे चला?' —पिता का आवेश विस्मय में बदल गया। 'अरे! इसमें पता चलने की क्या बात? मां के हाथ से फूटा और एक मिनट में आवाज बंद हो गई। अगर मेरी पत्नी के हाथ से फूटता तो घण्टा भर तक वह आवाज बंद ही नहीं होती। उस टंकार के साथ झंकार भी होता रहता।' कहने का अर्थ है कि बर्तन फूटने की टंकार तो एक मिनट में ही बंद हो जाती है, पर जो गालियां देने की झंकार है, वह घंटों तक चलती रहती है। झगड़े को टालने का उपाय है, आत्मा का ध्यान। जिसने चेतना का ध्यान किया, उसका जीवन सुधर गया।

दीर्घकालीन साधना करें

प्राचीन कहानी है। कहा जाता है—किसी कारणवश इन्द्र क्रुद्ध हो गया। उसने घोषणा कर दी—अब बारह वर्ष तक मेह नहीं बरसेगा। एक वर्ष भी बरसात न हो तो हाहाकार मच जाता है। बारह वर्ष की घोषणा सुन जनता मायूस हो गई। बरसात का समय। किसान हल और बैलों को लेकर खेतों में गए। भूमि को साफ किया। हल जोते।
इन्द्र ने देखा, उसने सोचा—मेरी स्पष्ट घोषणा है कि बारिस नहीं होगी, फिर ये क्यों खेती कर रहे हैं? वेश बदलकर इन्द्र नीचे आया। किसान इकट्ठे हो गए। इन्द्र बोला—क्या तुमने इन्द्र की यह घोषणा नहीं सुनी कि बारह वर्ष तक मेह नहीं बरसेगा। लोगों ने कहा—हमने सुना है। इन्द्र ने पूछा—फिर यह व्यर्थ का प्रयत्न क्यों कर रहे हो? क्यों भूमि को साफ कर रहे हो? क्यों बैलों को तकलीफ दे रहे हो? क्यों बुआई की तैयारी कर रहे हो? मेह तो बरसेगा नहीं। किसान बोले—मेह बरसे या न बरसे, हम तो भूमि की सफाई भी करेंगे और हल भी चलाएंगे।
यदि हम यह प्रयत्न करना छोड़ देंगे तो हमारी भावी पीढ़ी बिल्कुल बेकार हो जाएगी, कृषि करना भूल जाएगी। बारह वर्ष के बाद वे क्या खाएंगे? हम यह कार्य प्रतिवर्ष करते रहेंगे। मेघ बरसे या नहीं बरसे, यह उसकी इच्छा है, किन्तु हम अपना धन्धा नहीं छोड़ेंगे, कृषि करते चले जाएंगे। ऎसा करते-करते एक दिन अवश्य आएगा—मेह भी बरसेगा, खेती भी होगी। आखिर इन्द्र हारेगा, हम नहीं हारेंगे। कहने का अर्थ यह कि दृढ़ संकल्प होता है परिवर्तन का, प्रशिक्षण का तो इन्द्र हार सकता है, किसान कभी हार नहीं सकता।