Friday 1 June 2012

सीमाओं में न बंधें


Friday, 01 Jun 2012 10:04:12 hrs IST
एक राजा ने किसी योग्य गुरू की तलाश शुरू की। राज्य में घोषणा  करवा दी, जिसका आश्रम सबसे बड़ा होगा, उसे मैं अपना गुरू स्वीकार करूंगा। घोषणा  होने की देर थी। जगह-जगह से संवाद आने लगे कि मेरा आश्रम बहुत बड़ा है। सब अपने-अपने आश्रम का नक्शा लेकर राजमहल के दरवाजे पर इकटे होने लगे। 


राजा ने धैर्य से सबकी बात सुननी शुरू की। अंत में एक तेजस्वी साधु की बारी आई। राजा ने उससे पूंछा, 'आपने तो बताया ही नहीं। आपका आश्रम कितना बड़ा है?' संन्यासी ने कहा, 'राजन्! मैं यहां कुछ नहीं बताऊंगा। आप मेरे साथ जंगल में चलें, वहां मेरा आश्रम स्वयं देख लें।'
राजा उस साधु के साथ जंगल में गया। वहां जाकर वह साधु आसन बिछाकर एक वृक्ष के नीचे बैठ गया। राजा ने कहा, 'महाराज! कहां है आपका आश्रम?' 

साधु ने कहा, 'राजन्! नीचे धरती और ऊपर आकाश और इसके बीच में सारा चराचर जगत मेरा आश्रम है। आपके पास कोई फीता हो तो इसे माप लें।' राजा ने तत्काल उसे अपना गुरू मान लिया। 

कहने का अर्थ यह कि चाहे धर्म की सीमा हो या आश्रम की, जो सीमा में बंध जाता है, उसका दृष्टिकोण और चिंतन भी सीमित रह जाता है। यह सीमा कोई बहुत अच्छी बात नहीं होती। असीम की बात होनी चाहिए, मोक्ष और परमात्मा की बात होनी चाहिए। आज सीमाएं भी छोटी होती जा रही हैं। विस्तार नहीं संकुचन हो रहा है।

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