Friday 25 May 2012

आकांक्षा रहित कर्म करें


Wednesday, 23 May 2012 9:07:19 hrs IST
बादशाह अकबर ने एक बार तानसेन से कहा, 'सुना है तुम्हारे गुरू तुमसे बहुत अच्छा गाते हैं। कभी उन्हें इस दरबार में लाओ। मैं उन्हें सुनना चाहता हूं।' अकबर को इतना मालूम था कि तानसेन के गुरू स्वामी हरिदासजी हैं, जो वृंदावन में रहते हैं। अकबर के मन में आता था कि जब तानसेन इतना अच्छा गाते हैं तो उनके गुरू कितना अच्छा गाते होंगे? हरिदासजी का गायन सुनने की अकबर के मन में प्रबल इच्छा हो गई।

तानसेन ने अकबर के प्रस्ताव पर कहा, जहांपनाह, मेरे गुरू कहीं आते-जाते नहीं, मैं उन्हें यहां ले आने में असमर्थ हूं। अकबर बोला, फिर वहीं महफिल सजवाओ, हम वहां चलेंगे। 

तानसेन ने कहा कि यह भी सम्भव नहीं है। वे किसी की फरमाइश पर नहीं गाते। अपनी मर्जी पर गाते हैं। कुछ क्षण चुप रहने के बाद अकबर ने कहा, फिर हम वहीं चलते हैं। एक दिन बादशाह और तानसेन बिना किसी को बताए हरिदासजी की कुटिया पर पहुंच गए। सुबह हरिदासजी मस्ती में गा रहे थे। अकबर सुध-बुध खोकर उनका गायन सुनता रहा। गायन खत्म होने पर अकबर की तंद्रा टूटी। अकबर अपने पड़ाव पर लौट आए। 

अकबर ने तानसेन से कहा, तुम्हारे गुरू के गायन के सामने तुम्हारा गायन कुछ भी नहीं है। तानसेन ने कहा, 'हुजूर, मैं वेतन के लिए गाता हूं, जबकि मेरे गुरू ईश्वर के लिए। मुझमें और उनमें अन्तर तो होगा ही।'
कहने का अर्थ यह है कि आकांक्षा रहित होकर किया गया कार्य ज्यादा प्रभावशाली होता है।

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