Saturday 22 September 2012

तृष्णा त्यागें

गरीबी से तंग आकर एक व्यक्ति जंगल की ओर चला गया। जंगल में उसने एक संन्यासी को देखा। 
संन्यासी के पास जाकर वह बोला, 'महाराज मैं आपकी शरण में आया हूं। गरीब आदमी हूं, मेरा उद्धार करो।' साधु ने कहा, 'क्या चाहिए तुम्हें।' वह बोला, 'मेरी स्थिति देखकर पूछ रहे हैं कि क्या चाहिए मुझे। मैं गरीब हूं। धन दे दें।' संन्यासी ने कहा, 'धन छोड़कर ही तो मैं जंगल में आया हूं। धन तो मेरे पास नहीं है।' गरीब याचक अड़ गया।

उसकी भावना देखकर संन्यासी द्रवित हो गए और बोले, 'मेरे पास तो कुछ है नहीं, दूर सामने जो नदी के पास चमकीला पत्थर है, उसे ले लो। याचक बोला, 'पत्थर तोड़-तोड़ कर ही तो मेरे हाथ में छाले पड़े हैं। कुछ धन दिलाएं जिससे गरीबी दूर हो।' संन्यासी ने कहा, वह सामान्य पत्थर नहीं, पारस पत्थर है। वह प्रसन्न हो गया और पारस पत्थर उठाकर घर की ओर चल पड़ा।

पत्थर लेकर वह चल तो पड़ा, लेकिन रास्ते में मन में उथल-पुथल होने लगी। पहले तो सोचा कि चलो अच्छा हुआ, गरीबी मिट गई, पर तत्काल दूसरा चिन्तन शुरू हो गया। चिंतन गंभीर होता गया। वह वापस संन्यासी के पास जा पहुंचा और बोला, 'यह वापस करने आया हूं।'

संन्यासी ने कहा, 'क्यों?' याचक बोला, 'आपने मुझे पारस पत्थर दिया। इसका अर्थ यह है कि आपके पास इससे भी और कोई मूल्यवान चीज है। वह मुझे दे दीजिए जिसे पाकर आपने इसे त्याग दिया।' जिस व्यक्ति में तृष्णा का नाश हो जाता है, उसके लिए कोई भी वस्तु, कितनी भी कीमती क्यों न हो, कोई मायने नहीं रखती। आकर्षण तृष्णा के कारण ही पैदा होता है।
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