Thursday 23 August 2012

सुख का स्त्रोत

Tuesday, 21 Aug 2012 2:16:24 hrs IST

एक आदमी संन्यासी के पास गया और धन की याचना की। संन्यासी ने कहा, 'मेरे पास कुछ भी नहीं है।' उसने बहुत आग्रह किया तो संन्यासी ने कहा, 'जाओ, सामने नदी के किनारे एक पत्थर पड़ा है, वह ले आओ।' वह गया और पत्थर ले आया। संन्यासी ने कहा, 'यह पारसमणि है, इससे लोहा सोना बन जाता है।' 

वह बहुत प्रसन्न हुआ। संन्यासी को प्रणाम कर वह वहां से चला। थोड़ी दूर जाने पर उसके मन में एक विकल्प उठा, पारसमणि ही यदि सबसे बढिया होती, तो संन्यासी इसे क्यों छोड़ता? संन्यासी के पास इससे भी बढिया कोई वस्तु है। 
 
वह फिर आया और प्रणाम कर बोला, 'बाबा! मुझे यह पारसमणि नहीं चाहिए, मुझे वह दो जिसे पाकर तुमने इस पारसमणि को ठुकरा दिया।'

कहने का अर्थ यह कि पारसमणि को ठुकराने की शक्ति किसी भौतिक सत्ता में नहीं हो सकती। अध्यात्म ही एक ऎसी सत्ता है, जिसकी दृष्टि से पारसमणि का पत्थर से अधिक कोई उपयोग नहीं है।  आनन्द के स्त्रोत का साक्षात् होने पर आदमी उसे वैसे ही ठुकरा देता है, जैसे संन्यासी ने पारसमणि को ठुकराया था। हमारी ठीक कस्तूरी मृग की दशा हो रही है। कस्तूरी नाभि में है और मनुष्य कस्तूरी की खोज में है।

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