Thursday 31 May 2012

खुद को टटोलें


Thursday, 31 May 2012 9:44:49 hrs IST
दो आदमी यात्रा पर निकले। दोनों की मुलाकात हुई। दोनों यात्रा में साथ हो गए। सात दिन बाद दोनों के पृथक होने का समय आया तो एक ने कहा, 'भाईसाहब! एक सप्ताह तक हम दोनों साथ रहे। क्या आपने मुझे पहचाना?' दूसरे ने कहा, 'नहीं, मैंने तो नहीं पहचाना।' वह बोला, 'माफ करें मैं एक नामी ठग हूं। लेकिन आप तो महाठग हैं। आप मेरे भी उस्ताद निकले।'

'कैसे?' 'कुछ पाने की आशा में मैंने निरंतर सात दिन तक आपकी तलाशी ली, मुझे कुछ भी नहीं मिला। इतनी बड़ी यात्रा पर निकले हैं तो क्या आपके पास कुछ भी नहीं है? बिल्कुल खाली हाथ हैं?'

'नहीं, मेरे पास एक बहुमूल्य हीरा है और थोड़ी-सी रजत मुद्राएं।' 
'तो फिर इतने प्रयत्न के बावजूद वह मुझे मिली क्यों नहीं?'

'बहुत सीधा और सरल उपाय मैंने काम में लिया। मैं जब भी बाहर जाता, वह हीरा और मुद्राएं तुम्हारी पोटली में रख देता था। तुम सात दिन तक मेरी झोली टटोलते रहे। अपनी पोटली संभालने की जरूरत ही नहीं समझी। तुम्हें मिलता कहां से?' 

कहने का अर्थ यह कि हम अपनी गठरी संभालने की जरूरत नहीं समझते। हमारी निगाह तो दूसरों के झोले पर रहती है। यही हमारी सबसे बड़ी समस्या है। अपनी गठरी टटोलें, अपने आप पर दृष्टिपात करें तो अपनी कमी समझ में आ जाएगी। यह समस्या सुलझा सकें तो जीवन में कहीं कोई रूकावट और उलझन नहीं आएगी।

Tuesday 29 May 2012

प्यार ही स्वर्ग


Friday, 25 Nov 2011 8:21:24 hrs IST
बहुत पुरानी बात है। मेरी एवं टॉमस का जीवन आनन्दमय था। दोनों एक दूसरे से प्रेम करते थे तथा परस्पर समर्पित थे। गरीब होने के बावजूद वे अपना विवाह दिवस मनाते तथा एक-दूसरे को उपहार देते। दोनों में मन-मुटाव या झगड़े जैसी चीज किसी ने कभी सुनी ही न थी। एक बार उनका विवाह दिवस निकट आया। समय का फेर, दोनों के पास कुछ भी न था। उनकी जेबें खाली थीं। गरीबी के कारण उन्हें कहीं से उधार मिलने की उम्मीद भी न थी। दोनों के मन में उधेड़बुन चल रही थी कि इस वर्ष उपहार में क्या दिया जाए और उपहार की व्यवस्था कैसे की जाए?

अचानक मेरी को ध्यान आया कि टॉमस के पास सुन्दर घड़ी है, किन्तु उसमें पट्टा नहीं है। अत: क्यों न मैं अपने सुनहरे बाल बेचकर उसके लिए पट्टा खरीद लूं। यह विचार आते ही वह नाई के पास गई तथा बाल कटवा लिए और उसे बेचकर आ गई। जो पैसे मिले, उससे उसने टॉमस की घड़ी के लिए एक सुनहरा सा पट्टा खरीदा और खुशी-खुशी घर लौट आई। 

इधर, टॉमस सोच रहा था कि मेरी के सुनहरे घुंघराले बाल में सुन्दर-सी क्लिप हो तो वह कितनी अच्छी लगेगी। यह विचार आते ही उसने घड़ी बेचकर क्लिप खरीद ली।

उपहार देने का समय आया। क्लिप कहां लगे, क्योंकि बाल तो नदारद थे। वैसे ही चैन कहां बंधे, क्योंकि घड़ी तो बिक चुकी थी। दोनों पति-पत्नी के प्रेमाश्रु बहने लगे। उनके लिए प्यार ही स्वर्ग था। इसीलिए तो कहा कि जीवन में प्यार से बढ़कर कुछ नहीं है।

Monday 28 May 2012

पहले पुरूषार्थ करें


Monday, 28 May 2012 9:24:23 hrs IST
एक आदमी बैलगाड़ी लेकर जा रहा था। मार्ग में एक जगह दलदल आया और बैलगाड़ी उसमें फंस गई। बैलों ने जोर मारा, लेकिन गाड़ी का पहिया कीचड़ में धंसता गया। बैलगाड़ी वाला गाड़ी में बैठा बैलों को तो ललकारता है, किंतु गाड़ी को आगे बढ़ाने में सहारा नहीं देता। तभी देवी का एक मंदिर दिखाई दिया तो गाड़ी वाले ने देवी-मां की गुहार लगाई और गाड़ी को निकाल देने की प्रार्थना की। 

कुछ देर बाद एक हट्टा-कट्टा आदमी वहां आया। उसने कहा, 'गाड़ी में बैठने से क्या होगा? आओ, गाड़ी से नीचे उतरो और मेरे साथ गाड़ी को आगे की ओर धक्का लगाओ।' बैलगाड़ी वाले ने कहा, 'मेरे धक्का देने से क्या होगा? गाड़ी खींचने के लिए बैल हैं न?' आगंतुक ने कहा, 'तुम्हें गाड़ी निकालनी है या नहीं।' गाड़ी वाले ने कहा, 'गाड़ी निकालने के लिए ही तो देवी मां से विनती कर रहा हूं।'उस व्यक्ति ने कहा, 'निकालनी है तो जैसा कह रहा हूं, वैसा करो।' हारकर गाड़ी वाला नीचे उतरा, पहिये में हाथ लगाकर आगे की ओर धक्का दिया। बैलों को भी सहारा मिला और गाड़ी कीचड़ से निकल गई।

आगंतुक ने गाड़ी वाले को नसीहत देते हुए कहा, 'जिस काम को हम कर सकते हैं, उसके लिए देवी-देवताओं को बुलाना, उनसे मदद की आशा करना अच्छी बात नहीं है। अपने पुरूषार्थ का प्रयोग करना सीखो। जहां अपनी शक्ति काम न करे, अपर्याप्त सिद्ध हो, वहां देवी-देवता की पुकार करनी चाहिए।'

Saturday 26 May 2012

सहनशक्ति भी हो


Monday, 02 Apr 2012 9:20:36 hrs IST
अनुशासन को वही मान सकता है, जिसमें सहिष्णुता है। बड़ा आदमी भी वही बन सकता है, जिसमें सहिष्णुता है। आज अनुशासन में रहना किसी को मान्य नहीं है। 
एक बारह-तेरह वर्ष  का लड़का नगर से निकल कर एक निर्जन स्थान पर पहुंच गया। वहां उसे एक झोंपड़ी दिखाई पड़ी। वह उत्सुकता से वहां पहुंच गया। देखा बाबाजी झोंपड़ी में बैठे कोई धार्मिक ग्रंथ पढ़ रहे हैं। लड़के को देखकर उन्होंने उसे पास बुलाया। पीने को जल दिया और सामान्य जानकारी ली। वे समझ गए कि लड़का परिवार से अप्रसन्न होकर आया है, परेशान है। पूछा 'बच्चा तुम चेला बनोगे।' बाबाजी ने पूछा चेला बनोगे, तो लड़का असमंजस में पड़ गया, क्योंकि चेला बनने का मतलब वह समझ नहीं पाया था। 

संभ्रांत परिवार का था, 'चेला' शब्द ही नहीं सुना था। उसने पूछा- 'बाबा! यह चेला क्या होता है?' बाबा ने कहा 'भोले हो, इतना भी नहीं जानते? एक होता है गुरू और एक होता है चेला। गुरू का काम है आदेश देना। चेले का काम है आज्ञा या हुक्म का पालन करना।' लड़के ने झटपट उत्तर नहीं दिया। बोला 'मुझे सोचने का अवसर दीजिए।' 

बाबा ने कहा 'सोच लो।' लड़का पांच मिनट तक सोचता रहा, फिर बाबा के पास आकर बोला-'मैंने विचार कर लिया। चेला बनना मुझे स्वीकार नहीं। गुरू बनाओ तो बन सकता हूं।' ऎसे गुरू जो चेला बनकर कभी न रहे, आज मुसीबत बन रहे हैं। आज यही समस्या है कि हर कोई गुरू बनना चाह रहा है।

छोटों की राय


Wednesday, 03 Aug 2011 8:37:19 hrs IST
प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री अपने सहयोगियों से किसी विषय पर चर्चा करते समय कई बार अपने किसी नौकर या माली से पूछते, 'क्यों भाई। तुम्हारी इस पर क्या राय है या तुम्हारा क्या ख्याल है?'

एक बार जब अपने किसी मित्र से वे गंभीर विषय पर चर्चा कर रह थे तो यही बात दोहराई और अपने नौकर से पूछा, 'क्यों, तुम्हारी क्या राय है?'
मित्र ने कहा, 'शास्त्री जी! मुझे आपका यह व्यवहार आज तक समझ में नहीं आया। मैं आपसे एक मसले पर चर्चा कर रहा हूं और आप नौकर से राय मांग रहे हैं।'

इस पर शास्त्री जी ने उस मित्र को एक घटना सुनाई- गुरुत्त्वाकर्षण सिद्धांत के जनक न्यूटन के घर उनकी बिल्ली ने बच्चे दिए। रात को जब घर के सारे दरवाजे बंद हो जाते तो बिल्ली और उसके बच्चे बाहर निकलने के लिए उत्पात मचाते। न्यूटन ने नौकर को बुलाकर कहा, 'इस दरवाजे में दो छेद कर दो, एक छोटा, एक बड़ा।' नौकर ने कहा, 'सर, दो छेद की तो जरूरत ही नहीं है, एक ही बड़ा छेद काफी है, क्योंकि जिस छेद से बिल्ली निकल जाएगी, उस छेद से उसके बच्चे भी बड़ी आसानी से निकल जाएंगे।'

यह बात सुनकर न्यूटन हैरान रह गए कि इतनी छोटी-सी बात उनकी समझ में क्यों नहीं आई? यह घटना बताकर शास्त्री जी ने कहा, 'कभी-कभी छोटे व्यक्ति की सलाह भी बड़े काम की साबित होती है।' कहीं-कहीं छोटे आदमी भी बड़े काम की बात सुझा देते हैं। अच्छी बात बच्चे से भी सीखी जा सकती है। यह प्रयोग हमारे कष्ट, बेचैनी और मूच्र्छा को बहुत कम कर देगा।  -

मेहनत


Wednesday, 20 Jul 2011 8:30:22 hrs IST
एक सौदागर व्यापार करने के मकसद से घर से निकला। उसने एक अपाहिज लोमड़ी देखी, जिसके हाथ-पैर नहीं थे, फिर भी तंदरूस्त। सौदागर ने सोचा, यह तो चलने-फिरने से भी मजबूर है, फिर यह खाती कहां से है? 

अचानक उसने देखा कि एक शेर, एक जंगली गाय का शिकार करके उसी तरफ आ रहा है। वह डर के मारे एक पेड़ पर चढ़ गया। शेर लोमड़ी के करीब बैठकर ही अपना शिकार खाने लगा और बचा-खुचा शिकार वहीं छोड़कर चला गया। लोमड़ी आहिस्ता-आहिस्ता खिसकते हुए बचे हुए शिकार की तरफ बढ़ी और बचे खुचे को खाकर अपना पेट भर लिया। सौदागर ने यह माजरा देखकर सोचा कि सर्वशक्तिमान ईश्वर जब इस अपाहिज लोमड़ी को भी बैठे-बिठाए खाना-खुराक देता है तो फिर मुझे घर से निकलकर दूर-दराज इस खाना-खुराक के इंतजाम के  लिए भटकने की क्या जरूरत है? मैं भी घर बैठता हूं। वह वापस चला आया।

कई दिन गुजर गए लेकिन आमदनी की कोई सूरत नजर नहीं आई। एक दिन घबराकर बोला-ऎ मेरे पालक अपाहिज लोमड़ी को तो खाना-खुराक दे और मुझे कुछ नहीं। 

आखिर ऎसा क्यों? उसे एक आवाज सुनाई दी, 'ऎ नादान हमने तुझको दो चीजें दिखाई थीं। एक मोहताज लोमड़ी जो दूसरों के बचे-खुचे पर नजर रखती है और एक शेर जो मेहनत करके खुद शिकार करता है। तूने मोहताज लोमड़ी बनने की तो कोशिश की, लेकिन बहादुर शेर बनने की कोशिश न की। शेर क्यों नहीं बनते ताकि खुद भी खाओ और बेसहारों को भी खिलाओ।' यह सुनकर सौदागर फिर सौदागरी को चल निकला।

हमदर्दी


Saturday, 30 Jul 2011 8:34:32 hrs IST
एक जापानी अपने मकान की मरम्मत के लिए उसकी दीवार को खोल रहा था। ज्यादातर जापानी घरों में लकड़ी की दीवारों  के बीच जगह होती है। जब वह लकड़ी की इस दीवार को उधेड़ रहा था तो उसने देखा कि दीवार में एक छिपकली फंसी हुई थी। छिपकली के एक पैर में कील ठुकी हुई थी। उसे छिपकली पर रहम आया। उसने इस मामले में उत्सुकता दिखाई।
अरे यह क्या! यह तो वही कील है जो काफी पहले मकान बनाते वक्त ठोकी गई थी।

यह क्या !! क्या यह छिपकली इसी हालत से दो चार है?!! यह नामुमकिन है। उसे हैरत हुई। यह छिपकली आखिर जिंदा कैसे है!!!  बिना एक कदम हिले-डुले जबकि इसके पैर में कील ठुकी है! उसने अपना काम रोक दिया और सोचा कि किस तरह की खुराक इसे अब तक मिल पाई। इस बीच एक दूसरी छिपकली ना जाने कहां से वहां आई जिसके मुंह में खुराक थी। अरे! यह दूसरी छिपकली इस फंसी हुई छिपकली को खिलाती रही। जरा गौर कीजिए। वह दूसरी छिपकली बिना थके और अपने साथी की उम्मीद छोड़े बिना लगातार उसे खिलाती रही।

आप अपने गिरेबां में झांकिए-क्या आप अपने जीवनसाथी के लिए ऎसी कोशिश कर सकते हैं? तुम अपनी मां के लिए, अपने पिता के लिए, अपने भाई-बहिनों के लिए या फिर अपने दोस्त के लिए ऎसा कर सकते हो? और फिक्र कीजिए अगर एक छोटा-सा जीव ऎसा कर सकता है तो वह जीव क्यों नहीं जिसको ईश्वर ने सबसे ज्यादा अक्लमंद बनाया है?

Friday 25 May 2012

अहंकार का शमन


Friday, 25 May 2012 12:51:07 hrs IST
एक संन्यासी घूमता हुआ राजा के महल से होकर गुजरा। राजा के निवेदन पर संन्यासी ने राजा को दर्शन दिए। राजा ने प्रार्थना की, 'महाराज! मेरी रानियां भी आपके दर्शन करना चाहती हैं, लेकिन रिवाज के मुताबिक वे रनिवास से बाहर नहीं आ सकतीं। आप मेरे महल के भीतर चलें।' संन्यासी ने यह निवेदन भी स्वीकार कर लिया। 

राजा ने परिकरों को संकेत किया और तत्काल महल के द्वार से लेकर अन्त:पुर तक कीमती मखमली कालीन बिछा दिए गए। उन पर इत्र और खुशबूदार गुलाबजल छिड़का गया। मार्ग के दोनों ओर आदमकद दर्पण लगा दिए गए। 

महल के बाहर खड़े संन्यासी ने अपने कमंडल से पैरों पर पानी उंडेला और कीचड़ सने पैरों से उन गलीचों के ऊपर चलकर महल के भीतर जाने लगा।

साथ चल रहे विद्वान दरबारी ने संन्यासी से कहा, 'महात्मन! इतने अच्छे और कीमती कालीन को कीचड़ सने पैरों से गंदा करना कोई अच्छी बात तो नहीं।' 

संन्यासी ने कहा, 'मार्ग में मखमली गलीचे बिछाकर राजा के द्वारा अपने वैभव का प्रदर्शन करना तो अच्छी बात होगी? मैं तो उसके घमंड को चूर कर रहा हूं।'

विद्वान ने कहा, 'लगता है आपकी तपस्या अभी परिपक्व नहीं हुई। क्या आप नहीं जानते कि अहंकार को अहंकार से नहीं तोड़ा जा सकता। खून से खून का प्रक्षालन नहीं किया जा सकता और नमक को नमक से नहीं खाया जा सकता।'

मूर्ख कौन?


Thursday, 24 May 2012 10:16:12 hrs IST
एक चरवाहे को कहीं से चमकीला पत्थर मिल गया। चमकीला पत्थर लेकर वह बाजार में गया। फुटपाथ पर बैठे दुकानदार ने वह पत्थर उससे आठ आने में खरीदना चाहा, परन्तु उसने उसे बेचा नहीं। आगे गया तो सब्जी बेचने वाले ने उसका मूल्य लगाया दो मूली। कपड़े की दुकान पर गया तो दुकानदार ने उसका दाम लगाया- थान भर कपड़ा। 

चरवाहे ने फिर भी नहीं बेचा, क्योंकि उसका मूल्य लगातार बढ़ता जा रहा था।
तभी एक व्यक्ति उसके पास आया और बोला, 'पत्थर बेचोगे?' 'बेचूंगा, सही दाम मिला तो?' 'दाम बोलो' 'हजार रूपए' 'दिन में सपने देखते हो चमकीला है, तो क्या हुआ।' कहकर वह व्यक्ति आगे बढ़ गया। वह जोहरी था। समझ गया कि चरवाहा पत्थर का मूल्य नहीं जानता। वह चला गया कि फिर आता हूं। उसके जाते ही एक दूसरा जोहरी आया। पत्थर को देखते ही उसकी आंखें खुल गई। दाम पूछा, तो चरवाहे ने बताया डेढ़ हजार रूपए। जोहरी ने डेढ़ हजार में हीरा खरीद लिया। 

अब पहले वाला जोहरी उसके पास आया और बोला, 'कहां है तुम्हारा पत्थर?' चरवाहे ने कहा, वह तो बेच दिया। 'कितने में?' 'डेढ़ हजार रूपए में।' जोहरी बोला, 'मूर्ख आदमी, वह हीरा था जो लाखों का था। तुमने कौड़ी के भाव बेच दिया। चरवाहा बोला, 'मूर्ख मैं नहीं, तुम हो। वह तो मुझे भेड़ चराते हुए मुफ्त में मिला था। मैंने उसे डेढ़ हजार में बेच दिया । लेकिन तुमने उसका मूल्य जानते हुए भी घाटे का सौदा किया। मूर्ख तुम हो या मैं।' जोहरी के पास अब कोई जवाब न था।

आकांक्षा रहित कर्म करें


Wednesday, 23 May 2012 9:07:19 hrs IST
बादशाह अकबर ने एक बार तानसेन से कहा, 'सुना है तुम्हारे गुरू तुमसे बहुत अच्छा गाते हैं। कभी उन्हें इस दरबार में लाओ। मैं उन्हें सुनना चाहता हूं।' अकबर को इतना मालूम था कि तानसेन के गुरू स्वामी हरिदासजी हैं, जो वृंदावन में रहते हैं। अकबर के मन में आता था कि जब तानसेन इतना अच्छा गाते हैं तो उनके गुरू कितना अच्छा गाते होंगे? हरिदासजी का गायन सुनने की अकबर के मन में प्रबल इच्छा हो गई।

तानसेन ने अकबर के प्रस्ताव पर कहा, जहांपनाह, मेरे गुरू कहीं आते-जाते नहीं, मैं उन्हें यहां ले आने में असमर्थ हूं। अकबर बोला, फिर वहीं महफिल सजवाओ, हम वहां चलेंगे। 

तानसेन ने कहा कि यह भी सम्भव नहीं है। वे किसी की फरमाइश पर नहीं गाते। अपनी मर्जी पर गाते हैं। कुछ क्षण चुप रहने के बाद अकबर ने कहा, फिर हम वहीं चलते हैं। एक दिन बादशाह और तानसेन बिना किसी को बताए हरिदासजी की कुटिया पर पहुंच गए। सुबह हरिदासजी मस्ती में गा रहे थे। अकबर सुध-बुध खोकर उनका गायन सुनता रहा। गायन खत्म होने पर अकबर की तंद्रा टूटी। अकबर अपने पड़ाव पर लौट आए। 

अकबर ने तानसेन से कहा, तुम्हारे गुरू के गायन के सामने तुम्हारा गायन कुछ भी नहीं है। तानसेन ने कहा, 'हुजूर, मैं वेतन के लिए गाता हूं, जबकि मेरे गुरू ईश्वर के लिए। मुझमें और उनमें अन्तर तो होगा ही।'
कहने का अर्थ यह है कि आकांक्षा रहित होकर किया गया कार्य ज्यादा प्रभावशाली होता है।

ऎसा भी प्रेम...

Wednesday, 16 May 2012 9:36:38 hrs IST
एक फकीर बहुत दिनों तक बादशाह के साथ रहा। बादशाह का बहुत प्रेम उस फकीर पर हो गया। प्रेम भी इतना कि बादशाह रात को भी उसे अपने कमरे में सुलाता। कोई भी काम होता, दोनों साथ-साथ ही करते।

एक दिन दोनों शिकार खेलने गए और रास्ता भटक गए। भूखे-प्यासे एक पेड़ के नीचे पहुंचे। पेड़ पर एक ही फल लगा था। बादशाह ने घोड़े पर चढ़कर फल को अपने हाथ से तोड़ा। बादशाह ने फल के छह टुकड़े किए और अपनी आदत के मुताबिक पहला टुकड़ा फकीर को दिया। 
फकीर ने टुकड़ा खाया और बोला, 'बहुत स्वादिष्ट! ऎसा फल कभी नहीं खाया। 

एक टुकड़ा और दे दें। दूसरा टुकड़ा भी फकीर को मिल गया। फकीर ने एक टुकड़ा और बादशाह से मांग लिया। इसी तरह फकीर ने पांच टुकड़े मांग कर खा लिए। जब फकीर ने आखिरी टुकड़ा मांगा, तो बादशाह ने कहा, 'यह सीमा से बाहर है। आखिर मैं भी तो भूखा हूं। मेरा तुम पर प्रेम है, पर तुम मुझसे प्रेम नहीं करते।'

और सम्राट ने फल का टुकड़ा मुंह में रख लिया। मुंह में रखते ही राजा ने उसे थूक दिया, क्योंकि वह कड़वा था। राजा बोला, 'तुम पागल तो नहीं, इतना कड़वा फल कैसे खा गए?' उस फकीर का उत्तर था, 'जिन हाथों से बहुत मीठे फल खाने को मिले, एक कड़वे फल की शिकायत कैसे करूं? सब टुकड़े इसलिए लेता गया ताकि आपको पता न चले। ऎसा व्यक्ति जो होगा, वही संतुष्ट हो सकता है। संतोष् का भी अपना गणित है। अपनी कैमिस्ट्री है।