Thursday 28 February 2013

विवेक जरूरी

एक गांव में मल्ल-कुश्ती का आयोजन था। एक ओर बहुत पुराना मल्ल था, दूसरी ओर हट्टा-कट्टा नौजवान मल्ल था। पुराना मल्ल बूढ़ा हो चला था। गांव के लोगों ने कहा, आज तो बड़ी समस्या है। दूसरे गांव से जो मल्ल आया है, वह नौजवान है और तुम बूढ़े हो गए हो। कहीं ऎसा न हो कि गांव की बदनामी हो जाए, तुम हार जाओ। मल्ल बोला—चिन्ता मत करो, मैं सब दांव जानता हूं। लोग आश्वस्त हो गए। कुश्ती के समय से पहले वृद्ध मल्ल नौजवान मल्ल के पास गया, उसके कान में मृदु स्वर में बोला—देखो, कुश्ती में जो जीतता है, उसे पचास रूपया मिलता है। जो हारता है, उसे कुछ भी नहीं मिलता।


मैंने तो बहुत कमा लिया है। मुझे पचास रूपए नहीं मिलेंगे तो कोई बात नहीं है, किन्तु तुम पचास रूपए से क्या कर लोगे? यदि तुम मुझे जिता दो तो मैं तुम्हें पांच सौ रूपए दूंगा। नौजवान मल्ल ने सोचा—यह तो अच्छा प्रस्ताव है। नौजवान मल्ल ने उसे जिताने का वादा कर लिया। कुश्ती शुरू हुई। थोड़ी देर तक नौजवान मल्ल लड़ा, और फिर उसने जानबूझकर ऎसे दांव खेले कि वृद्ध मल्ल जीत गया। प्रतियोगिता समाप्त हो गई। संध्या का समय। जवान मल्ल पुराने मल्ल के पास गया, बोला—लाओ, पांच सौ रूपए। वृद्ध मल्ल ने कहा—कौन से पांच सौ रूपए? नौजवान मल्ल यह सुनकर विचलित हो उठा। उसने कहा—अरे! तुमने ही शर्त रखी थी कि मुझे जिता दो तो तुम्हें पांच सौ रूपए दूंगा।

वृद्ध मल्ल ने कहा—'तुम मल्ल बने हो, इतना भी नहीं जानते कि कुश्ती में बहुत सारे दांव-पेंच होते हैं। यह प्रस्ताव भी मेरा एक दांव ही था। नौजवान मल्ल यह सुन अवाक् रह गया। यह जिंदगी दांव-पेंच की जिन्दगी है।

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