Saturday 23 February 2013

संन्यासी की दृष्टि

एक चोर भूल से एक आश्रम में चला गया। कुटिया में एक संन्यासी बैठा था। संन्यासी जाग रहा था। चोर ने सोचा—गलत स्थान पर आ गया, मैंने समझा था कुछ और, आ गया कहीं और। चोर ने संन्यासी को प्रणाम किया। संन्यासी ने पूछा—भाई! तुम कौन हो? चोर ने सोचा—यहां क्यों झूठ बोलूं? उसने कहा—महाराज! मैं चोर हूं, चोरी करने आया हूं। संन्यासी बोला—यहां क्या मिलेगा तुम्हें? पर आ गए हो, तो निराश नहीं लौटने दूंगा। संन्यासी खड़ा हुआ, उसने देखा—एक कम्बल टंगा हुआ है। उसने कम्बल उतारा और कहा—सर्दी का मौसम है, ठिठुरते जाओगे। यह कम्बल साथ ले जाओ, काम आएगा। चोर कम्बल लेकर चला गया। 

संयोग ऎसा मिला—पुलिस ने चोर को पकड़ लिया। चोरी का सामान बरामद कर लिया। घोष्ाणा हो गई—जिनका सामान हो, वे आकर ले जाएं। संन्यासी को पता चला, संन्यासी भी गया। संन्यासी ने कहा—यह कम्बल मेरा है। 'क्या आपका है?' 'पहले था, पर अब मेरा नहीं है।'

'इस चोर ने चुरा लिया?' 'यह चोर नहीं है। यह आदमी मेरी कुटिया में आकर खाली जा रहा था। मैंने कहा—भाई! खाली क्यों जाते हो। मैंने यह दान दिया है, इसने चोरी नहीं की है, इसलिए मैं वापस ले नहीं सकता।
चोर ने संन्यासी के पैर पकड़ लिए। उसने गद्गद् स्वर में कहा— 'एक तुम ही मुनि हो, जो भला आदमी कहते हो, दूसरा कोई मुझे भला कहने वाला नहीं है। क्या चोर भला आदमी है? सबकी दृष्टि में बुरा और संन्यासी की दृष्टि में भला। यह अपना-अपना दृष्टिकोण है। कोई भी आदमी नितान्त बुरा नहीं होता और कोई भी आदमी नितान्त भला नहीं होता।

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