कारीगर बोला, 'सेठ साहब! मैं आपका मकान बना दूंगा, पर एक बात का ध्यान दें—जिस दिन मकान की नींव की खुदाई पूरी होगी, उस दिन नींव में एक मन घी की आहुति देनी होगी। उससे नींव मजबूत बन जाएगी, अन्यथा नींव मजबूत नहीं बनेगी।' सेठ ने कहा— 'ठीक है।' काम शुरू हुआ। सेठ ने कारीगर के सामने एक मन घी का पात्र रख दिया। कारीगर चक्कर में पड़ गया। सेठ बोला— 'यह लो घी।' 'सेठ साहब! अब विश्वास हो गया है कि मकान बन जाएगा।' '
संदेह क्यों हुआ? कब हुआ?' 'सेठ साहब! दो-चार बूंदें घी की नीचे गिरी और आपने घी को चाट लिया। मैंने सोचा—सेठ इतना कंजूस है, मकान कैसे बनाएगा। अब विश्वास हो गया है कि मकान बन जाएगा।' सेठ ने सोचा—यह कारीगर है लेकिन विवेकी नहीं है। सेठ ने कहा— 'अनावश्यक दो-चार बूंदें भी खराब नहीं होनी चाहिए और यदि आवश्यकता है, तो एक मन के स्थान पर दस मन घी भी डाला जा सकता है। विवेक यह होना चाहिए—हम शक्ति का उपयोग करें, किसी वस्तु का व्यय करें तो कहां करें?
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