Friday, 17 August 2012

वेश का आग्रह


 गांधीजी के आश्रम में एक प्रसिद्ध संन्यासी पहुंचा और बोला- 'मैं आपके आश्रम में रहकर जीवन बिताना चाहता हूं, आप जैसा चाहें राष्ट्र-निर्माण में मेरा उपयोग करें। इसे मैं अपना परम सौभाग्य समझूंगा।' 

गांधीजी ने कहा- 'आश्रम तो आप जैसे सत्पुरुषों के लिए ही होते हैं, किंतु यहां रहने के लिए आपको अपने इन गेरूवे वस्त्रों का परित्याग करना पड़ेगा।' गांधी की बात संन्यासी को अच्छी नहीं लगी। गेरूवे वस्त्रों को छोड़ने की बात में उसने अपना अपमान समझा। फिर भी संयम रखकर गांधीजी से कहा- 'ऎसा कैसे हो सकता है? मैं संन्यासी हूं। गेरूवे वस्त्र का त्याग कर कोई अन्य वस्त्र धारण करना संन्यास छोड़ने जैसी बात होगी।' 

गांधीजी ने उन्हें समझाते हुए कहा- 'इन गेरूवे वस्त्रों को देखते ही हमारे देशवासी इन्हें धारण करने वालों की पूजा शुरू कर देते हैं। भगवान के समान मानने लगते हैं। इन वस्त्रों के कारण लोग आप द्वारा की जाने वाली सेवा को स्वीकार नहीं करेंगे। भारत का कोई भी धार्मिक आदमी किसी साधु-संन्यासी से सेवा लेना नहीं चाहेगा। जो वस्तु या प्रतीक हमारे सेवा कार्य में बाधा डाले, उसे छोड़ देना चाहिए। फिर संन्यास तो एक मानसिक प्रवृत्ति है। वेश को छोड़ देने से संन्यास भाव कैसे समाप्त हो जाएगा? भगवा वस्त्र पहने यहां आपको कोई सफाई का कार्य कौन करने देगा?'  गांधीजी की बात संन्यासी को सत्य और सही प्रतीत हुई और उन्होंने अपने गेरूवे वस्त्र उतार दिए।

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